गुलदस्ता - 1 Madhavi Marathe द्वारा कविता मराठी में पीडीएफ

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गुलदस्ता - 1

          1

भोर होते ही खेतों की                                                                                                                                            

अधुरीसी, ओंसभऱी नींद खूल गई

ओंस की टिपटिपाती बुंदों से

मिट्टी अधगिली हो गई

मस्तमौला पखेरू ने फैलाए

अपने पंख मुलायम

लहराती हवाओं से

काँप उठे चिडियों के अंग

हरी लहराती घास के

धीरे से चमक उठे धारे

सुरज किरणों की स्पर्श से

फुलों की महक उठी डाले

आकाश की निलयता में

घुल गए रंग फुहारे

धीरेसे खिल उठा जीवन

अपने ख्वाबों के सहारे

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           2

हरे भरे पतों के पिछे

धीरे से किसी की नींद खुली

रेशम स्पर्श पराग का

आनंद से गुनगूनाने लगी

मयुरपंख बन स्नेहकी लडियाँ

अखियोंने पंखुडियाँ हिलाई

रंगीन दुनिया देखकर

तितलीयों जैसी भिरभिरायी  

मलमल जैसी फूल पत्ती से

तन बेला खिलखीलाई

भँवरों की नजरों से छुपकर

यौवन लेने लगा अंगडाई

महकती तन की खुशबू

फैलती चारो और गई

धीरे धीरे सिमट गया दिन

जीवनज्योत बुझने लगी

एक दिन की रंगीन सुगंधी

फुलों की क्यारियाँ मुरझाने लगी

दिन ढलता गया, और वह

अपनेआप में समाने लगी

जीवन मे कितनी सारी

सबको खुशियाँ बांटी थी

फुलों ने भी आनंद लिया, फिर अपने अंतराल चली थी

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        3

नीले नीले आसमान में

काले बादल गहराए

तेज हवाकी झोकों से

उमड घुमड के गरजाए

चकाचौंध से निकली बिजली

तेज शलाका फैलाए

चारो और हुआ अंधेरा

पंछी घोसले में लोट आये

चालू हो गई वर्षा

थंडीसी लहरे फैलाए

बारिश की बुंदे गिरकर

छलछलाते बहते जाए

घनघोर गरजते बिजली

दूर चली गई रेखापार

खाली हो गए काले बादल

लौट गए वो सीमापार

............................

 

       4

तरलता से बहुत कुछ

अंतर्मन की गहराईयोंतले

खिंचता चला जा रहा है

मयुरपंख सा हलका

रेशम जैसा मुलायम

मीठे सुरीले नाद में से

वह हलकेसे चला गया

मैं वह क्षणों की माला

गुंथती गई, उन्ही यादों को

पिरोती गई

जब कभी वह पल याद आये

तो क्षणों की माला मन में से

निकालकर ,फिर वही यादों की

धुन सुनती रही, जगाती रही

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          5

जीना चाहते है खुशहाल जीवन

तो अपनेही बंधन बीच में आते है

वही बंधनों को तोड देतेही

साँसे जीवन पार जाते है

तो क्या करे इस जीवन का

हँसी से दुःख में समाए,

रोए तो मन हलका होकर

आसमान में उडता जाए

गुम हुए मानवता में

अपना मन न ढुंडे कभी

जीवन की आखिरता में

कोई एब ना रहे पाए कभी

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  6

जीवन सच में सुंदर होता है

या वो केवल एक भास है

मानवता की आड में

छुपा हुआ एक शाप है

गुमनाम रिश्तों में एक

अनजनी सी खुशबू है

नाम दिया हुआ रिश्ता

बंधनों का फास है

गहरी श्वास की लडियाँ

कभी अंदर ही फँसती है

बहती हुई तेज साँसो में

मृत्यू का भवसागर है

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          7

बरगद पेडों की पुरानी जडे

जमीन से संलग्न होकर

फिरसे नया जीवन प्रारंभ करती है

उपर से नीचे आकर

पुर्नजिवीत हो जाती है

नया जीवन पाकर, उल्हासभरे

डालियोंसे फिर उपर बढती है

बरगद का पेड महावृक्ष बनने के लिये ।

अनंत काल, उनका जीवनचक्र

सृष्टी लय के साथ चलता है, लेकिन सृष्टी का

अविभाज्य अंग धरणीकंप, ज्वालामुखी,

तुफानों का भी उस वृक्ष को सामना

करना पडता है

मन्वंतर के बाद सृष्टी विनाश होता है

ए बरगद के पेड, तेरी जीवन लालसा

को प्रणाम, उस में भी तू जी जाता है

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