बोलती समाधी - 1 Ankush Shingade द्वारा प्रेरणादायी कथा मराठी में पीडीएफ

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बोलती समाधी - 1

बोलती समाधी
Bolati samadhi

प्रकाशक व लेखक
अंकुश शिंगाडे नागपूर
9923747492

वितरक
अनुष्का

मुखपृष्ठ
अनुष्का

अक्षरजुळवणी
अंकुश शिंगाडे नागपूर


मनोगत
बोलती समाधी यह मेरा उपन्यास पाठकों को देते हुये मुझे हर्ष हो रहा है/ यह उपन्यास यह पाठकों के लिए मनोरंजन है/ इतना ही नही यह उपन्यास वास्तवता का प्रतिक है/ आप पढे और आनंद ले/और एक फोन जरूर करे/
आपका भवदिय




गाँव में अकाल पड रहा था।किसान खुदखुशी कर रहे थे।अकाल के चलते चलते मोसम ने कितने लोगों की जान ली,पता ही नही चल रहा था। खुदखुशी का कारण पता ही नही चल रहा था। कारण था कर्जा।किसान ने सावकारों से ऋण जो ले रखा था। जरुरत के चलते कर्जा लेना भी आवश्यक हो गया था। घर की शादी निपट जाती थी। शादी करना भी महत्वपूर्ण था।
साहूँकार बडे अमीर थे। साहूँकार किसान की खेती कम दाम में ही हडप कर जाते थे।ब्याज पर ब्याज चढाते चढाते किसान शिकंज्जे में फँसते ही जाते थे। साहूँकार के लड़के भी किसान की असहायता का लाभ लेते हुए किसान के बहूबेटियोंको अपने हवस का शिकार बनाते थे। अपने पिता की मजबूरी देखते हुए किसान की बहूबेटियाँ उन साहूँकार के बेटे के आगे चुपचाप उनका अत्याचार सहन कर लेती थी। उसका बवाल नही करती थी।
गाँव की अकाल का कारण अकाल था।जिस साल फसलें अच्छी होती थी। उस साल किसान आस लगाते बैठते वक्त अपना कर्जा उतारने की सोच दिलमें ले बैठता था। तब उन्हे अपने बेटियों की शादी की भी तमन्ना याद आती थी। मगर तभी साहूँकार के गुंडे आकर पुरी फसल साहूँकार के घर ले जाते थे। किसान देखते ही रह जाते थे।
कभी कभी गाँव में इतनी बारिश होती थी कि बारिश के कारण बारिश के फसल की बुआई किसान कर लेता था। मगर इस साल पानी कम गिरने से किसान की फसल,ही पकती थी। इस तरह सुका अकाल तथा जिस साल बारिश के चलते कम बारिशवाली फसल से मोसम ज्यादा घुस्सा होने पर फसल की जडें सड जाती थी। मगर इनपर कोई मुआवजा नही मिलता था। अतः किसान को बड़ा नुकसान होता था। मानों क्या करे? किसान सोचता ही रहता था। इसी सोच विचार में किसान में व्यक्तिगत व्यंग आता था।कभी कभी खुदखुशी की संभावनाएँ।इसी संभावनाएँ के चलते सरकार ने एक नई योजना किसान के वास्ते लाई थी। हर गाँव गाँव मे पाईपलाईनें लगाकर किसानों को पानी का लाभ कर रही थी। किंतू मोसम में पानी न आने से नल में भी पानी नही आता था। इन्ही वजह से फसल नही होती थी।नल में पानी नदियों से आता था और नदियाँ सुख गई थी।
गाँव के कुछ लोग नशा करने में माहिर थे। गाँव में देशी शराब की एक दुकान थी। वैसे तो छुपी शराब भी गाँव में मिलती थी। वे लोग सरबत कहकर शराब बेचते थे। साहूँकार के लड़के शराब में डुबे रहते थे।
गाँव में जो शराब की दुकान थी। वह दुकान साहूँकार के लड़के के दोस्त की थी। वह दोस्तो शराब के गिरते दामों को चढ़ा चढ़ाकर बेचता था। जिस किसने भी इसका विरोध किया उसको खैर नहीं रहती थी। इसलिए जान गँवाने के चक्कर में गाँव के वोग डरे डरे से महसूस करते थे।
गाँव में अकाल के चलते निजी स्वार्थ पल रहा था। पुरे गाँव में जिस वक्त कोई समस्याएँ नहीं थी। उसी गाँव में अकाल के चलते स्वार्थ पल रहा था। बढ़ भी रहा था। क्योंकि पेट पालना कठिन हो रहा था। बेबस असहाय किसान भारी गम के अँधेरे में गिर पडे थे। इसलिए उस गम को भुनाने किसान कभी कभी शराब पी ही लेते थे। उन्हें उस शराब से राहत महसूस होती थी। नशा उतर जाने के बाद फिर गम को भुलाने फिर नशा।यह रोजाना दिनचर्या थी।इसलिए गाँव का शराब बेचनेवाला दुकानवाला बढ़ रहा था और लोग कँगाल होते जा रहे थे।
पानठेलें,लाटरी,सट्टापट्टी की भी गाँव में दुकान थी। वह भी जोरों से चलती थी।गाँव के जवान लड़के उन दुकान में पड़े रहते थे। क्योंकि उन्हें कम दाम मेहनत में ज्यादा पैसे कमाने की आदत सी हो गई थी। इसलिए लाटरी तथा सट्टा बाजार जोरों पर था।
किसी को मारना सरल हो गया था। उसका किसी को डर नही था। शराब और लाटरी के चलते रोजाना झगड़े गाँव में चलते थे। तथा छिडे मतभेद में साल में कितनी लाशें गिरती हुई दिखाई देती थी। कोई छुपछुपकर तो कोई खुलेआम लाशें गिराते थे। यह समस्याएँ अकाल में ही पैदा होती थी।
विपदा वाल इस गाँव में एक ऐसा भी परिवार था। उनकी सोच अलग थी।उनके घर में चार एकड़ भूमि थी। अकाल का असर उनके भी घर में था।उनके भी घर फसल नहीं होती थी। उनका नाम था करनसिंह।करनसिंह मेहनत करने में कम नहीं था।उसको तीन बेटियाँ तथा एक बेटा था।बेटियाँ घर में सबसे बड़ी तथा बेटा सबसे छोटा था। गाँव के सभी लोगों की हालत उसे पता थी। जैसे की गाँव के बेबस लोगों का बिगड़ना।उसका एकमात्र कारण था अकाल और दुसरा कारण था अज्ञान।
गाँव में जो एक पाठशाला थी।उस पाठशाला में साहूँकार का ही कब्जा था। वह भी पाठशाला सातवी तक ही सीमित थी।वहाँ पर गरीब लोगों के लड़के नही पढ़ते थे।ज्यादा पढ़ना है तो उन्हें बाहारगाँव पढ़ने जाना पड़ता था। जो सबके लिए यह सँभव नही होता था। क्योंकि उच्चतम शिक्षाए शहर स्थित थी। जो शहर गाँव से बड़े दुरीपर था।
गाँव का गंदगी उसे बड़े ही घिनौने लगती थी। उस गुंडे लोगों की गंदी सोच बड़े आपत्ती को जनम दे रही थी। गाँव के हुल्लड जवान कब किसी लड़की को छेड़ ले।उसका अंदेशा न था।गाँव के साहूँकार के खिलाफ किसीने पुलिस थाने में तक्रार भी दे।फिर भी उसकी दरख्वास्त नही लेते थे। पुलिस तो साहूँकार के दोस्त थे।ऐसी शिकायत करने पर पुलिसवाले उस शख्स को पकड़ कर कुछ दूरी तक ले जाती थी।अतः बाद में छोड़ देती थी।
करनसिंह यह अत्याचार दूर करने की सोचता था।किंतू साहूँकार के सामने एक भी नहीं चलती थी। इसलिए वह अपने घर के बेटे को पढ़ाना चाहता था।
करनसिंह की बेटियाँ सातवी तक तो पढ़ी।मगर गाँव में पाठशाला सातवी तक ही होने से वह ज्यादा पढ़ नही सकी। मगर करनसिंह ने बेटे को पुरी शिक्षा देने की प्रतिज्ञा ले ली थी। जो उस लड़के को पढ़ा रहा था। अब करनसिंह की लड़कियाँ खेती में काम करती थी। वह लड़कियाँ साहूँकार का कर्जा उतारने हेतू उसके भी घर काम करती थी। किंतू उन छोटी सी लड़कियों पर साहूँकार के गुंडे वासनाभरी निगाओं से देखते रहते थे। कभी हाथ भी लगाते थे। फिर भी बदनामी के डर से वह लड़कियाँ चूपचाप रहती थी।
करनसिंह को भी वह बात पता थी। मगर मजबूरी के कारण वह कुछ नही करता था।वक्त के साथ साथ लड़का सातवी पास हुआ। आठवी कक्षा गाँव में न होने से उसका दाखिला शहर स्थित पाठशाला मे करने का विचार करनसिंह ने किया। परंतु आनेजाने के लिए पैसे न होने से वे सोच में पड़ गए। तब उन्हे ध्यान आया कि शहर में एक पाठशाला के पास छात्रावास भी है। जहाँ पढ़ाई का खर्चा उठाया जाता है। तथा किताब कापी भी मिल जाती है। कुछ पैसा घर से भी भेजते रहेंगे।
सोचने का अवकाश,करनसिंह ने अपने बेटे मधू का दाखला वहाँपर किया।जहाँ पढ़ाई में दिक्कत न थी। मधू पढ़ने के लिए शहरस्थित पाठशाला मे गया। परीवार को भी बड़ी खुशी हुई। परीवार की तकदीर बनाने की सोच बड़ा आनंद दे गई।
धुपकाला निकलता जा रहा था। सरला ने एक दिन पुछा।
"देखो,पाठशाला नजदीक आ रही है। बेटे को पहले ही तैयारी करके भेजना है। शहर की पाठशाला है।शहर मे अच्छे अच्छे बच्चे होंगे। उचे घर के बच्चे होंगे। उसमे मेरा बेटा कमजोर नही पडना चाहिए।"
"सरला,मुझे भी वैसे ही लगता है। मगर मै क्या करु?मेरे पास पैसे भी तो नही है।"
"कुछ भी करो जी।मेरा बेटा पुरी पढ़ाई पढ़ना चाहिए।"
"मै भी तो वही सोच रहा हूँ।"
"क्या सोच रहे हो?"
"मेरा बेटा पढ़े और गाँव की सारी समस्याएँ दूर हो।"
"अभी तो सुरवात है।"
"इसलिए तो मै सोच रहा हूँ। किंतू मुझे कुछ समस्याएँ सता रही है।"
"कौनसी? आखिरकार मुझे भी पता चले कि मै आपकी समस्याएँ जान सकू।"
"लेकिन मुझे उसका अनुमान नही है।"
''फिर भी तो मै आपकी बिवी हूँ जी।"
"पैसा नही है।"
"बस इतनी सी बात?"
"पैसे कहाँ से लावू?यही चिंता मुझे सता रही है।"
"हाँ पैसे नही है अपने पास।कर्जा भी ज्यादा ही है सरपर।"
"खेती पर कर्जा निकाले तो।"
"नही नही।खेती माँ है अपनी।उनको अभी गिरवी नही रखेंगे।"माँ को गिरवी नही रखा जाता।"
"सरला तेरी भी बात बराबर है। किंतू मै करु तो क्या करु?दुसरा उपाय भी तो नही है।"
करन के साथ साथ करन का परीवार भी सोचविचार कर रहा था। बेटे के पढाई की सुरुवात थी। शहर जो जा रहा था। साबन,कपडालत्ता,खानेपीने की चिंता थी नही।वह छात्रावास से ही मिलनेवाला था। परंतु आम खर्चे तो लागू थे। दोनो पती पत्नी इस बात से परेशान थे।उतने मे सरला बोली।
"देखो,पैसे की चिंता छोड़ो।"
" लेकिन पैसे का काम पैसा ही करता है न।"
"उसी पैसे के लिए तो बोल रही हूँ।"
"फिर पैसा कहाँ से लाए?"
"ठीक है तो आप अभी एक काम करो। मेरा मंगलसुत्र साहूँकार के पास गिरवी रख दो।ताकि कुछ दिनों तक खर्चा चले।बाद में दुसरा बना लेंगे।"
"देख अपने पास तुम्हारेे माँ बाप की आखिरी निशाणी है।"
"वैसे तो मेरा बेटा पढ़ाई पूरी होने पर मुझे बहोत सारे मंगलसुत्र खरीदकर देगा।"
"मै कुछ भी करुँगा।मगर तेरे माँ बाप का दिया हुआ मंगलसुत्र गिरवी नही रखुँंगा। वह भी तो तेरे माँ बाप का प्यार है।"
"लेकिन मेरे माँ बाप ने मुझे आपको सौंप दिया है। इसलिए मेरी सारी संपत्ति,सारी वस्तुओं तथा चीजें आपकी है।"
"जबकि सरला ये सुरुवात है। आगे आगे बेटा पढ़ता गया तो क्या करेंगे? ऐसे खर्चे बढते ही जायेेंगेे!"
"अभी का सोचो।तब की तब देख लेंगे।"
"आप कितनी महान है कि बेटे के पढ़ाई के लिए मंगलसुत्र गिरवी रखने की बात कर रही हैं।"
"मै तुम्हें और बेटे को खुश देखना चाहती हूँ।"
"न.....न.......नही नही।मंगलसुत्र गिरवी रखना या बेचना मेरे बस का काम नही।दुसरा कोई मार्ग बताओ।"
"दुसरा कोई भी विकल्प नही।देखो कोई लोग तो अपनी शराब की आदत पुरी करने हेतू अपने बिबी का मंगलसुत्र बेचते है।मै तो मेरे बच्चे की पढ़ाई हेतू.......।"
"नही नही। मंगलसुत्र बेचना अर्थात पती को जीते जी मारने के बराबर है। मुझे यह पसंंद नही।"
"क्यो?मै काला धग्गा बाँधके रह लुँगी।"
"नही नही। यह उचित नहीं है।"
"तो कोई दुसरा उपाय.......।"
करन सोच में पड़ गया।कुछ देर के बाद उसे ध्यान मेंं आया और वह बोला।
"अपनी बेटियाँ तो काम पर जाती है। उन्ही के पास कुछ जमा पैसे होंगे तो फिलहाल के लिए माँग ले।"
"नही जी यह भी तो अच्छी बात नही। वह उनका पैसा है।"
"कह दे बाद में वापिस करेंगे।"
"नही नही। वापिस की बात मत करो।वह पैसा आखिर उनकी भी तो जिंदगी है। उन पैसो से उनकी शादी होगी। और तो और इसकी भनक भी उनको नही लगने देनी है। हमच कड़ी मेहनत करेंगे और दुसरा मंगलसुत्र लेंगे। या इसे ही छुडवाकर लायेंगे।आप मेरी बात मान ही लो। दुसरा कोई रास्ता भी तो नही बचा है।बेटा अगर अपना है।तो उसका सोचविचार माँ बापनेही करना चाहिए।बेटियों ने नही।"
"ठीक है।आप जो बोलती हो।वही करुँगा।दुसरा कोई उपाय भी तो नही।कुछ खेती भी तो आखिर गिरवी पड़ी है।मै तो इतना बदनशीब हूँ कि शादी के वक्त तुझे अपना खरीदा हुआ मंगलसुत्र भी नही पहना सका। इसका मुझे अफसोस है।मै उसीके बोझतले आजतक जी रहा हूँ।वह भी दिया हुआ मंगलसुत्र आप अपने बेटे के लिए गिरवी रखने की बात करती है।"
"यह आपने अच्छी बात कही है। लेकिन आपने अफसोस करने की जरुरत नही।क्योंकि मुझे आपके रुप में अच्छे पती जो मिले है। लोगों को शराब पिने वाले मिलते हैं। कुछ लोगों को तो भिन्नभिन्न शौक भी होते हैं। कुछ लोग तो अपनी आदतें पुर्ण करने के लिए अपने जोरु को भी बेच देते हैं। आप तो वैसे है नही। आप सिधे साधे इंन्सान है। ऐसे पती जो स्रियाँ नशिबवान होती है। उन्हीं को मिलती हैं। इसलिए आपको मै दुबारा कहती हूँ कि आप मंगलसुत्र पर अफसोस ना करे।"
सरला ने अपना मंगलसुत्र अपने गले से उतारा और करनसिंह के हाथ में देते हुए बोली।
"लो जी यह मंगलसुत्र।यह अपने प्यार की निशानी।यह प्यार मंगलसुत्र की जगह काले धागे से भी रहेगा। वह भी ना हो तो सिर्फ दिल अच्छा होना चाहिए।"
करनसिंह ने मंगलसुत्र लिया और वह गिरवी रखने हेतू चला गया। उस मंगलसुत्र में उसके बेटे की तकदीर जो लिखी थी। मधू के भाग्य का फैसला जो होना था।

पाठशाला में मधू पढ़ रहा था। पाठशाला के विद्यार्थी उसके सामने चुनौती भरे थे। वैसे तो उसके माँ बाप ने मंगलसुत्र बेचकर बहोत बड़ा त्याग जो दिया था। उसका पता भी मधू को न लगने दिया था। किंतू मधू को माँ बाप के स्थिती की जानकारी थी। इसलिए वह चुनौती को स्विकार करते करते कक्षा में मन लगाकर पढ़ाई कर रहा था।
छात्रावास के आवास में वह पढ़ रहा था। छात्रावास के कुछ नियम थे। वह नियमअनुसार चलता जा रहा था। हरदिन सुबह शाम प्रार्थना होती थी। प्रार्थना के बाद भोजन होता था। भोजन के बाद थोडा टहलने को समय मिलता था। समय अनुसार ठीक आठ बजे पढ़ाई वास्ते बैठना पड़ता था। पढ़ाई दस ग्यारह बजे तक चलती थी। उसके बाद आराम से सोने के लिए बिस्तर पकड़ लेते थे। पढ़ाई से दिमाग इतना थक जाता था कि बच्चे बिस्तर पर लेटे लेटे जल्द ही सो जाते थे। दस बजे के पहले अगर कोई बच्चा नींद में समा गया हो तो सुपरीटेंन्डेंट आता और लकड़ी या चैन से मारकर जगा देता।मजबूरन पढ़ाई करनी पडती थी। चैन के छपाक पड़ने से मानो जान तिलमीला उठती थी। घुस्सा भी बहोत आता था। लेकिन वह बात विद्यार्थी योंके लिए उत्तम थी। उठते ही नल के थंडे थंडे पानी में नहाना पड़ता था। थंडी का मौसम हो या बारिश का मौसम रोज नहाने को थंड़ा पानी ही मिलता था। एक देड़ घंटे में नहाकर तैयार होकर प्रार्थना के लिए बैठना पड़ता था। फिर पाठशाला जाना पड़ता था।
पाठशाला में साडे नव बजे छुटी होती थी। तथा बारह बजे पुर्ण छुटी होती थी। घर आने पर भोजन मिलता था। जिसका भोजन वक्त परोसने का अनुक्रम होता था। वह भोजन परोसते थे। खाने के बाद दो झपकी लगा लेते थे बच्चे।ठीक चार बजे उठकर कुछ बच्चे खेलने जाते थे। तो कुछ बच्चे सब्जीयाँ काँटते थे।
छात्रावास शहर के बिचोबीच था। छात्रावास में तरह तरह के बच्चे पढ़ाई करने आते थे। दूर दूर से बच्चे आते थे। कभी कभी मस्ती भी करते थे बच्चे।
शहर के संकरी गली में उनकी पाठशाला थी। पाठशाला के भी कुछ नियम थे। समय पर पहूँचना।गणवेश परीधान करना।पढ़ाई के साथ साथ खेल कुद में भाग लेना आदि.मधू पढ़ाई के साथ साथ खेल कुद में भी आगे रहता था।
प्रथमसत्र की परीक्षा हुई।आज परीक्षा का निकाल आनेवाला था। मधू मनोमन खुश था।मधू को विश्वास था कि वह प्रथमसत्र की परीक्षा में बाजी मार सकता है। हुआ वैसेच।निकाल में मधू का परीक्षाफल शत प्रतिशत अच्छा ही आया था। परीक्षा मे मधू ने उसके माँ बाप का नाम रोशन किया था। चुनौती भरे माहौल में शहर के बच्चों की दौड़ में मधू सबसे आगे निकल गया। वैसे तो शहर के बच्चो को माँ बाप पढ़े लिखे थे। उनकी ट्युशन भी थी।फिर भी मधू आगे गया था। इसलिए आज अध्यापक ने मधू की सब बच्चों के सामने तारीफ की थी। एक बक्षीस के तौर पर पेन भी दिया था।
मधू को बड़ा आनंद हुआ था। लेकिन चुनौती पुरी नही हुई थी। द्वितीय सत्र जो बाकी था। वैसेही बहोत से साल अभी बाकी थे उसे पढ़ाई पुरी करने।
निकलते निकलते दिन निकल गये। कुछ दिन निकल जाने के बाद मधू ने दुसरी भी परीक्षा दी।उसबार भी वह पहिला ही था। कुछ दिन ऐसे ही चले गए। मधू नववी पास होकर दसवी में गया।अब उसको चिंता सताने लगी।
धुपकाला हर साल आता था। मधू छुटी लेकर हरसाल गाँव आता था। लेकिन उस बार घर नही आया। दसवी की पढ़ाई जो थी। मधू ज्यादा ही जोर लगाकर पढ़ाई में जुट गया। पाठशाला और छात्रावास में तथा ट्युशन में मधू मग्न हो गया।
शालान्त परीक्षा......शालान्त परीक्षा के वे दिन थे। मधू रोजाना पढ़ाई करने लगा था। खेल कुद घुमने फिरने तथा पाठशाला आना जाना,ट्युशन आना जाना।पुरा टाईमटेबल मधू ने बनाया था इससाल। मधू को माँ बाप की हालत मालूम थी। मगर बच्चो ने ट्युशन लगायी थी। पाठशाला में उतना खास नहीं पढ़ाते थे। शालान्त में अधिकांश बच्चे ट्युशन लगाते हे यह अध्यापकों को पता था। करे तो क्या करे? मधू के सामने प्रश्नचिह्न खड़ा होने की वजह से मधू ने ट्युशन लगाई थी। मगर वह छात्रावास में रहते रहते काम पर जाने लगा। तथा अपनी पढ़ाई पुरी करने लगा था।
शालान्त कक्षा.......माँ बाप का सपना.शालान्त कक्षा कौनसी भी हालत में निकालनी है इसका सोचविचार उसे था। पाठशाला में दसवी को पढ़ाने वाले नये नये टिचर आये थे। जिन्हे विषयों की पुरी जानकारी थी। मगर उनकी भाषा मधू को नही समजती थी। ऐसे में हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे तो नापास होने का डर था।उतने में प्रथमसत्र परीक्षा हुई। परीक्षाफल आया।मगर वह परीक्षाफल अच्छा नही था। वह परीक्षाफल मधू के जीवन को बदलता हुआ चला गया। क्योंकि इस परीक्षाफल में मधू को सबसे कम गुण मिले थे।
परीक्षाफल देखते ही मधू सोच में पड़ गया। अब सोचने की उमर हुई थी। माँ ने अपने पढ़ाई के लिए अपने गले का मंगलसुत्र बेच दिया। यह बात उसे तकरीबन पता चल गई थी। माँ बाप की तकलिफो से वह अनजान न था।
मधू के माँ बाप चमार समाज के थे। लेकिन बाप ने कभी बुटपालिस या बुट शिलाई नही की।वे गरीब जरुर थे।किंतू लाचार न थे। वे खेती मे अनाज पकाते,मगर जाती का धंदा उन्होने नही किया और उसका परीणाम भी बच्चों पर नही होने दिया। वे तो बच्चों की तकदीर बनाने में लग गए।
सोचते सोचते मधू के मन में आया कि ट्युशन लगाई जाये।तभी शालान्त परीक्षा का परीक्षाफल अच्छा बनेगा।मै उच्च शिक्षा ले सकूँगा।मगर ट्युशन का पैसा कैसे देंगे?बड़ा ही विचित्र प्रश्न उसके सामने खड़ा था। क्योंकि उसमे खतरा था।मालक जब चाहे तब छुटी नही देंगे। काम से थकने पर पढ़ाई में मन नही लगेगा। सब्जियों का धंदा करते हैं,तो माल कहाँ रख पायेंगेे।आदि प्रश्न दिलोदिमाग में हैरान कर रहे थे।
धंदा कौनसा किया जाये। उस सोच में डुबा जा रहा था कि अचानक उसके दिमाग में प्रकाश पड़ा।बुट पालिस और तथा चप्पल शिलाई का काम,जो काम बाप ने नही किया था। वह काम करने की बात मधू ने मन में लाई थी। सोचने का अवकाश मधू के सामने उसका लाभ नुकसान भी आ गया।
ज्यादा पैसे भी नही लग सकते है धंदा चालू करने को।दो रुपये के खिले लेंगे। एक खिले के दो रुपये बनते हैं। ऐसे ही दो दो रुपये जमा करते करते एक पालिश की डबी लेंगे और ब्रश लेंगे,धागा लेंगे।किंतू जब पालिश करते वक्त मेरे पहचान के लोग मिले तो.......।मेरे दोस्त मिले तो,वे क्या कहेंगे? कहने दो।आज निकड मुझे है,कौन दे रहा पैसा? न दोस्त दे सकते है न ही मेरे छात्रावास के छात्र।मै जब काम करुँगा। तभी मुझे पैसा मिल सकता है। इस में किसी की अनुमति लेने की जरुरत नही।
सोचने का अवकाश.मधू ने मामा के दिए हुए खावू के पैसे से कुछ चप्पल शिलाई का सामान लिया। समयानुसार वह बाज़ार,रेल्वेस्थानक,बसस्थानक पर बुटपालिश कहता हुआ भटकने लगा। वह काफी धंदा कर लेता और पैसे भी जोड़ लेता।।
मधू का धंदा जोरो से चलने लगा था। उसने ट्युशन लगाई थी। किंतू धंदे से जब भी मधू छात्रावास पहूँचता।मधू थका रहता।पढ़ाई में उसका मन भी नही लगता।परंतु उसको अपने माँ बाप का सपना और उस मंगलसुत्र की बात याद आती और वह फिर से पढ़ाई करने लगता।
काम से आनेपर नींद भी सताते रहती।परंतु मन की उम्मीद उसकी नींद भी हराम कर देती थी। अब तो परीक्षा के दिन आये थे। मधू ने पढ़ाई बंद की भी। किंतू धंदा कुछ दिन से बंद किया था। पेपर अच्छे गये थे।।अब अंतिम पेपर बाकी था। अंतिम पेपर हो जाने पर मधू पिश्चर देखने थियेटर चला गया।
काम करते करते और पढ़ते पढ़ते मधू अध्यापक बन गया।पढ़ाई खत्म होने के बाद मधू को गाँव जाने की आशा उत्पन्न हुई। बहोत दिनों से वह गाँव नही गया था।
बिना बताए गाँव आनेपर मधू के माँ बाप को बड़ा आश्चर्य हो रहा था। बहोत दिनों से माँ बाप भी उसे मिलने तरस गये थे। आखिर लड़के की मुलाकात होने के बाद माँ बाप के चेहरे पर खुशी के आँसू उभर आये। वह माँ बाप से मिला तो सही! मगर बहन से नही मिल सका। क्योंकि बहनों की शादी हो गई थी। वे बहनें उससे काफी बड़ी थी। अपना लड़का पढ़ना चाहिए करके माँ बाप ने बहनों के शादी में भी उसे नही बुलाया था। शादी में पंद्रह दिन लगते ही है ऐसा उनका अंदेशा था। इससे पढ़ाई का नुकसान होने का डर जो था। वैसे बहनें न दिखने पर मधू ने माँ बाप से पुछ ही लिया।
"माँ मेरी बहनें कहाँ है?"
"बेटे क्या बताऊँ तुझे?"
"बता नं माँं,मेरी बहनें कहाँ है?""
"बेटा,बड़ी तो कालिख पोतकर गई और दोनों की शादी हो गई।"
"माँ ये पिताजी क्या अनाप शनाप बोल रहे हैं?"
"बेटा,तेरे पिताजी बराबर बोल रहे हैं।"
"लेकिन बड़ी संजू तो बड़ी लाडली थी पिताजी की।"
"हाँ,थी तो.मगर........."
"ये कालिख का मतलब क्या समजू माँ?"
"तो सुन।तेरे तिनो बहने उस साहूँकार के यहाँ काम पर जाती थी। उस साहूँकार के बड़े बेटे की नजर तेरे बहन पर।फिर क्या था।।उक्त सुंदरता के कारण संजू को साहूँकार के लड़के ने दबोच लिया। डर से उसने भागकर साहूँकार से शादी कर ली। अब साहूँकार का लड़का कहाँ रहता है यह हमे भी पता नहीं।लगता है वह उसी शहर में रहता है।"
"माँ गौरी और नंदिनी?"
''फिर हम डरे हुए थे। लगता था कि वे दोनों भी भाग जायेगी।तो....."
"तो क्या माँ?"
"इसलिए तुम्हें बताए बिना जल्द ही उनकी शादी कर डाली।"
"लेकिन मुझे बताया क्यो नही माँ?"
"बेटा,तुझे बताते जरुर। किंतू तेरी दसवी की पढ़ाई थी। आखिर तेरी पढ़ाई पंद्रह दिन जा सकती थी।"
माँ का उत्तर सुनकर मधू भौचक्का रह गया। उसको माँ के उत्तर पर आँसू आ गए। आखिर माँ बाप ने सख्खे बहन के शादी में मधू को नही बुलाया।इसका अफसोस उसे था। एक तरफ खुशी तो दुसरी तरफ शादी में न बुलाने का अफसोस था।मधू आखिर रो पड़ा।रोते रोते माँ को पुछा।
"माँ मेरे जिजा कैसे है?"
"दोनों के भी पती अच्छे है बेटा।"
"तो माँ मै उनसे मिलने जा सकता हूँ।"
"क्यो नही?आखिर तू उनका भाई है। शादी नही मिली तो क्या हुआ?यह बात वे भी जानते है।"
"ठीक है तो मै जाऊँगा कभी मिलने।"
बहोत दिनों से लड़का आया उक्त बात से उस घर में दिवाली मन रही थी। माँ ने पुरणपोली बनाई थी। जो पुरणपोली मधू को अच्छी भाँती थी। वह उसको ज्यादा पसंद थी।
मधू ने खाना खाया और नींद के खर्राटे मारते मारते सो गया। गत रात में मधू की नींद खुली।उसके मन में विचार आया।बहन की शादी!खुशी का माहौल होगा। शहनाई बजी होगी।बहन सजी होगी।मेहंदी लगाई होगी। जिजा घोड़े पर सँवार होकर आये होगे। किंतू बहन के मन में कितना गम होगा कि उनका भाई उनके शादी में नही है। वह रोई भी होगी। लेकिन मेरे माँ बाप!उन्होंने असुरी कृत्य किया।वह भी मेरे पढ़ाई के लिए।आखिर ये लोग पढ़ाई को इतना महत्व क्यो देते हैं?बहन के शादी में मै नही होने से मेरे माँ बाप को भी अच्छा लगा होगा?वे भी क्या खुश होगे?चलो कल ही मै नंदीनी से मिलने जाता हूँ।
सुबह हुई थी।चाँद की किरण आकाश से गायब हुई थी। सूरज की किरनों ने चंदा के किरनों को परास्त किया था। तीव्र गती से वह धरती पर आ पहूँची थी। पंछीयोंकी आहट से मधू की नींद खुल गई थी। उसकी माँ खाना बनाने चुल्हे पर जुट गई थी। वह सबेरे सबेरे थकान महसूस कर रही थी। पिताजी बैल का गोबर,कुडा कचरा फेंक रहे थे।
मधू बिस्तर से उठा।उसने अपनी आँखे धोई। वह नहाया,धोया,खाना खाया और अपने माँ से बोला।
"माँ मुझे नंदीनी का पता दे।मै उससे मिलने जाता हूँ।"
माँ ने मधू को नंदीनी का पता दिया। मधू ने पत्ता किताब में उतार दिया और वह नंदीनी को मिलने रवाना हो गया।
"माँ मै जा रहा हूँ। दिदी को क्या कहना बता दे।"
"कुछ,नही बेटा। किंतू उसे कुछ प्रश्न नही पुछना।"
"प्रश्न!क्या बात है माँ?जरुर कुछ न कुछ बात है?जो तुम मुझसे छुपा रही हो।"
"कुछ नही बेटा।वह यही पुछ सकती है कि तेरी बड़ी बहन कैसी है? तू मिला क्या नही मिला?कहाँ रहती है?यह सारी बातें।"
"मै क्यो पुछू माँ?मुझे तो उसके बारे मे तो कोई जानकारी नही है।"
"ठीक है,जा बेटा।अच्छे से जाना।"
"हाँ माँ।" कहते हुए मधू चल बसा।रास्ते का एक एक पद नापते हुए वह चल रहा था। उतने में उसको आवाज आई।
"मधू ए मधू।"
उसने आस पड़ोस देखा।उसे कोई दिखा ही नहीं।तभी पुनः आवाज आई और वह बोल उठा।
"कौन?"
"मधू रुक।"
वह रुका उसने पिछे पलटकर देखा तो उसे उसका दोस्त दिखा नाम था माधव। वह मधू का बचपन का दोस्त था।
"बोल माधव,कहा से आ रहा है?"
"अरे मै आवाज लगा रहा हूँ और तू भागे ही जा रहा है।"
"नही तो।मै किसलिए भागे जा सकता हूँ।"
"कहाँ निकला है?"
"बहन के इधर बहन से मिलने जा रहा हूँ।"
"बहन से!कौनसी बहन से?"
"अरे मेरी छोटी बहन नंदीनी।"
"मत जा।"
"क्यो?"
"मत जा बोला तो मत जा।"
"क्यो?"
"तुझे मालूम नही।"
"क्या बात है?मुझे कुछ पता नही।मेरे माँ बाप ने भी तो मुझे शादी मे नही बुलाया।"
"इसलिए तो नही बुलाया।"
"क्या किया आखिर मेरे माँ बाप ने?"
"तेरे माँ बाप ने......।"
"हाँ हाँ बता क्या किया मेरे माँ बाप ने?"
"तु घुस्सा तो नही होगा।"
"नही।बता तो
तो सही।"
"नही नही तु जरुर घुस्से मे आ सकता है।"
"बता माधव,तुझे मेरी कसम है।"
"कसम वसम मत दे।कसम के बोझतले अपनी यह दोस्ती खत्म हो जायेगी।"
"आखिर बात क्या है माधव?मै किसीसे कुछ न कहूँगा।"
"मुझे पुछने के पहिले एखाद गाँववाले से पुछ ले।कोई भी बता देगा तुझे।"
"नही माधव,अब तुही बता दे।"
"देख मै तुझे बता देता हँ,मगर तु घुस्सा नही होना।"
"बता तो सही।"
माधव बताने लगा।
"सुन मधू,मै और गौरी बात कर रहे थे तब गौरी ने मुझे बताया कि उनके माँ बाप ने उन्हें बेच दिया है।"
"बेच दिया!क्यो बेच दिया?"
"बेच दिया क्योंकि तुझे पढाना था। तेरे पढ़ाई के लिए दूर जमीनदार से बेच दिया गौरी को।"
"माधव तु झुठ तो नही बोल रहा।"
"किसी एक गाँववालों से पुछ ले।"
"नही नही तु झुठ बोल रहा होगा।"
"तुझे जो लगता है वही सही।मगर सच कभी छुप नही सकता।"
"लेकिन बेचा क्यो होगा?क्या मजबूरी होगी?माँ तो बता रही थी सिर्फ बड़ी बहन के बारे में कि उसने कालिख पोत दी।"
"कालिख नही,प्यार था उसका साहूँकार के बड़े बेटे के साथ।लेकिन तेरे माँ बाप उसे देना नही चाहते थे। तेरे पढ़ाई के लिए तेरे माँ बाप ने साहूँकार से कर्जा भी ले लिया था। इसलिए गाँव के साहूँकार ने तेरे माँ बाप को संजू की माँग की।मगर वह माँग पुरी नही करने की वजह से बेचारा साहूँकार उसने खरीद लिया संजू को।इससे साहूँकार का कर्जा उतर गया। लेकिन यह बात तेरे पिताजी को नही भाई।लेकिन क्या करे? यह किस्मत का खेल समझ।"
"माँ ने तो कहाँ कि नंदीनी,गौरी बड़े मजे से जीवनयापन कर रही हैं।"
"तेरी बात सही है। लेकिन हरसाल के तंगी से तंग आकर खुदखुशी करने के बजाय गौरी को एक जमींदार के हवाले किया तो इसमें उतनी बुरी बात नही है। शादी नही हुई तो क्या हुआ? तेरी पढ़ाई ते हो ही गई न।उपर से घरका खर्चा भी पुरा हुआ।"
"नंदीनी का भी यही हुआ क्या?"
"नंदीनी की शादी समाज में हुई। वैसे देखा जाये तो दोनों भी खुश है। क्योंकि वे दोनों ही गाँव में नही।इसलिए उनका दुःख दर्द समजता नही।मगर संजू साहूँकार के बंगले में कैद है। बाहर के सुरज की रोशनी तक उस संजू तक नही पहूँचती। गाँव का कोई भी व्यक्ती तेरी बहन संजू तक नही पहूँच सकता।गेट पर चौकीदार रहते हैं। उस साहूँकार के लड़के आठ बिबीयाँ है ऐसा सुना है। उस बिबीयों से वह धंदा करवाता है। ऐसी भी गाँव में चर्चा है।"
"धंदा!"
"हाँ हाँ हाँ काम करवाता है। वो बिबीयों से जिस्म बेचने का काम करवाता है। देशी विदेशी नेता लोग साहूँकार के बंगले में पड़े रहते हैं। वही लोग जिस्म का आनंद लेते है। बदले में पैसे देते हैं। वे पैसे साहूँकार ही लेता है। उनको सिर्फ पैसे चाहिए।पैसे की इज्जत है बंगले में।"
मधू सुनते सुनते होश खो बैठा।जैसे ही उसने जिस्म की बात सुनी। वह अपने घुस्से को काबू न कर सका और एक तमाचा दे मारा माधव को।वैसे माधव ने नम्रता से कहाँ।
"सुन मधू,तु किनकिन लोगों को मारता फिरेगा।मै तो झुठ बोलनेवालों मे से नही हूँ और ना ही मै दबेल हूँ किसीका।तुने बोला इसलिए मैने कह दिया।इसमें मेरी क्या गलती है?मै तो पहिले ही बोलनेवाला नही था। तुने ही बोलने पर मजबूर जो किया।
माधव,मेरी गलती हुई।अक्षर मै मारना नही चाहता था। लेकिन जिस्म की बात सुनकर मै मेरा घुस्सा काबू में नही कर सका। माधव मुझे माफ कर दो।"
माधव निकल गया। मधुके मन में प्रश्न उत्पन्न करता हुआ।
'मेरे पिताजी ने मेरे बहनों को क्यो बेचा होगा?सोचते सोचते कब शाम हुई।उसका पता ही नही चला।'
अँधेरा पड़ने लगा था। तब मधू होश में आ गया। नंदीनी के गाँव में भी वह नही गया था। उसी जगह से वह वापिस लौट गया। सबेरे से चलते पैर बडे दर्द महसूस कर रहे थे। घर जाने की इच्छा हो रही थी। फिर भी क्या किया जाये?इतने रात में कहाँ जाये? आखिर मरने भी जाये,तो बुजदिली होगी। मधू के जीवन का सबसे काला दिन यही था।
मधूने सोच विचार किया।अभी धूपकाल की छुटी यहाँ नही मनायेंगे। शहर जायेंगे।अपने शहर......जहाँ किराये का कमरा देखेंगे।गठई का काम करेंगे। खुद को सँवारते सँवारते अपने पैरों पर खड़े होगे।ताकि मै मेरी औरत तथा बच्चौ को न बेच सकूँ।उन्हे आराम की जिंदगी दे सकूँ। खुब पढूँगा।क्योंकि मेरे पढ़ाई हेतू मेरे बहन की इज्जत दाँव पर लगा डाली मेरे माँ बाप ने।
रात के घने अँधेरे में रास्ता निकालकर मधू घर में वापस आया। पिताजी भी घर पर आये थे। जैसे ही मधू ने घर में प्रवेश किया। माँ बोली।
"आया बेटा,जल्दी ही वापिस आया। मिली क्या नंदीनी?"
"नही मिली माँ।"
"क्यो बेटा और तु क्यो घबराया हुआ है?"
"कुछ नही माँ।"
"कुछ तो कारण जरुर होगा।"
"कुछ नही माँ?थोड़ा थका हुआ हूँ।"
"बेटा,क्या नंदीनी ने रुकने को नही कहाँ?"
''ऐसी कोई बात नहीं माँ।"
"दामादजी भी मिले या नही?"
"नही माँ।"
"क्या ताला लगा था क्या?"
"नही माँ।"
"तो फिर क्या बात है?कुछ अनभन हुई नंदीनी से या दामाद से?"
"नही माँ।"
"फिर क्या बात है मेरे लाल?"
"माँ मै नंदीनी के गाँव नही,अपने गाँव जाना चाहता हूँ।खुब पढ़ाई करना चाहता हूँ।"
"अब कौनसा अपना गाँव जाना चाहता है?"
"मै....मै मेरे शहर जाना चाहता हूँ।"
"क्यो जाना चाहते हो शहर?तुझे आने को दोन दिन पुरे नही हुए और जल्द ही गाँव जाना चाहता है!"
"नही,मेरा यहाँपर मन नहीं लग रहा।"
"एक ही दिनमें कौनसा मन समझ में आयेगा?"
"नही माँ,मै शहर इसलिए जाना चाहता हूँ कि....।"
"मै इसलिए जाना चाहता हूँ कि मै छुटी में काम कर सकूँ वहाँपर।"आगे जब पढूँगा तब मुझे मेरे पढ़ाई के पैसे काम में आयेगे।मै अभी कमानेलायक हो गया हूँ अभी आपपर मै बोझ नही बनना चाहता।"
"ऐसा क्या किया हमने कि तु हमपर बोझ नही बनना चाहता?"
"माँ,बच्चा जवान भी हो,तब भी माँ बाप के ही पैसों का इस्तेमाल करे। यह बात शोभा नही देती मुझे।"
"फिर तु शहर में कौनसा काम करेगा?कहाँपर रहेगा?"
"कुछ भी करुँगा। जो मिला वो।कहाँपर भी रहूँगा आखिर मुझे मेरी भी तो जिंदगी सँवारनी है।"
"लेकिन मधू तु चिंता अभी से क्यो करता है?हम है न अभी?" पिताजी बोले।
"पिताजी,आप व्यर्थ की चिंता ना करो।कब तक मै तुमपर बोझ बनकर रहूँगा?मुझे भी तो मुझमें आदत डालनी पडेगी नं।"
"बेटा,तेरी भी बात ठीक है।"
"इसलिए तो मै शहर जाना चाहता हूँ पिताजी।"
"एक डर है उसमें।"
"कौनसा?"
"तु अगर इस उमर में पैसा कमाने लगेगा,तो तेरा ध्यान पढ़ाई की उपर से निकल जायेगा और तु पैसे के चक्कर में पढ़ाई छोड़ देगा।"
"नही पिताजी,ऐसा कभी न होगा।"
"ठीक है,तेरी जैसी इच्छा हो,,वैसाही कर."
"अच्छा पिताजी।"
मधू शांत हो गया था। वह खाना खाने के बाद टहलने लगा। आकाश में चाँद नज़र आ रहा था। उस प्रकाश से धरती माँ खुश हुई थी। मधू ने धरती की तरह देखा,तो वह खुशनुमा समझ रहा था। उसे याद आया उसका पढ़ा हुआ भुगोल।चाँद सुरज की रोशनी लेता है। वह विचार करने लगा। क्या हमें किसीके रोशनी की जरुरत है?क्या हम स्वयं प्रकाशित नही बनना चाहिए?मधू मन ही मन सोच रहा था।
बिस्तर पर लेटा मधू जरुर, लेकिन उसे नींद नही आ रही थी। क्या माधव सच बोला होगा?यही प्रश्न उसे सता रहा था। मगर गाँववाले भी जानते है। माधवने कहाँ थ। क्या गाँववालो को सच और झूठ पुछना चाहिए?या सच और झूठ माँ बाप से ही पुछना चाहिए? सच का पता कैसे चलेगा? माँ बाप को पुछने पर माँ बाप को बुरा लग सकता है। आखिर मै क्या करु? सच का पता कैसे लगाऊँ? मधू मन में सोच रहा था।वैसे सोचते सोचते हवा छुट गयी और बिस्तर पर लेटा लेटा मधू सो गया।
चिड़िया रानी चिल्ला रही थी। मधू गहरी नींद में था। वह जाग गया था। उसने खिड़की से बाहर देखा तो उसे अँधेरा निकल जाता हुआ नजर आया। उसे शहर जाने की भी याद आयी।पिताजी बैल का गोबर तथा कुड़ा निकालने चले गए थे। माँ रोटीयाँ बना रही थी।
मधू उठा। उसने इधर उधर देखा।उसने प्रातःविधी समाप्त किया।तथा वह सामान बाँधने अंदर चला गया।
मधू अंदर जाने के बाद माँ सोचने लगी कि मधू बचपन में ही इतनी उँची सोच रखता है। तब बडेपण में कितना होशियार होगा। उसने हमारे दर्द को पहचाना है। ताकि वह हमारे दुःखदर्द दूर कर सके।
मधू कुछ कपड़े बाँधकर बाहर आया और माँ से कहने लगा।
"माँ मै अभी शहर चलता हूँ।"
"अब कब आयेगा बेटा?"
"माँ बीचबीचमे आते रहूँगा। अभी तो मुझे मेरी जिंदगी बसाना बाकी है। मुझे अफसोस रहेगा माँ की मुझे आपने मेरे बहन के शादी में नही बुलाया। अगर मेरी बहने आयेगी तो उन्हे कह देना की मधू ने उन्हें याद किया।"
"लेकिन बेटे,तेरे पिताजी को तो आने दो।"
"वो कहाँ गये माँ?"
"बेटे,,वो खेत में गये है। यह खेती किसानों की माँ है।किसानों की रक्षा करती है। वह हमारा पेट पालती है।"
"ठीक है,आप कहती है तो पिताजी आने के बाद जाऊँगा।"
"और यह कुछ पैसे रख।तेरे काम आयेंगे और ज्यादा खर्चा नही करना।वह शहर है।शहर में खर्चे लंबे लंबे होते है।"
"नही माँ,इसकी कोई आवश्यकता नहीं है।"
"आवश्यकता हो या ना हो,लेकिन रख ले।यह पैसा तेरे बड़े इम्तिहान में काम में आ सकता है।"
माँ के दिए कुछ पैसे मधू ने अपने पास रख लिए।कुछ देर बाद पिताजी आये।मधू को पुरा तैयार देखकर पिताजी बोले।
"बेटा,इतने जल्दी तु तैयार हो गया। इतनी याद आयी तुझे शहर की?दो दिन और रुक जाता तो अच्छा होता।तु आये जैसा लगा भी नही हमें।"
"आपका ठीक है पिताजी।लेकिन मजबुरी है।मुझे तो मेरी तकदीर जो बनानी है। आप को लगता है कि आपका बेटा किसान बने।"
"नही बेटा।"
"तो क्या लगता है?"
"हमें लगता है कि तु बड़ा ऑफिसर बने। तेरेे आगे पिछे नौकर हो।जो तुझे सलाम करे।।हमें लगता है कि तु डॉक्टर बने,मरीजों की सेवा करे। हमें लगता है कि तु वकिल बने। गरीबों को न्याय मिलाकर दे।हमे लगता है कि हमारा बेटा सर्वगुणसंपन्न बने।"
"बस पिताजी,आपका आशिर्वाद चाहिए।"
"मेरा तो आशिर्वाद सदा ही तुम्हारे साथ है बेटे।आशिर्वाद से कुछ नहीं मिलता। कड़ी मेहनत करनी पड़ती है और हमें पता है कि तु कड़ी मेहनत करेगा।"
"तो समझ जाओ पिताजी कि आपका यह बेटा कुछ अलग बनकर आयेगा।"
मधू ने पाँव छुए और वह शहर की तरफ चल बसा।


शालान्त परीक्षा का परीक्षाफल आया था। मधू ने सपने मे भी नही सोचा था कि वह मेरीट आनेवाला है। मगर वह शालान्त मेरीट में पास हुआ था। पेपरवाले उसे ढुँढते हुए छात्रावास गये थे। लेकिन मधू वहाँपर नही था। छात्रावास से जानकारी लेकर वे मधू के गाँव में भी गये थे। मगर वहाँपर भी मधू नही था। मधू कहाँ गया होगा? वार्ताहर सोच रहे थे। वार्ताहरों ने मधू की खोज की,लेकिन मधू कहींपर नही मिला था।
शालान्त परीक्षा का परीक्षाफल आज तीन बजे ही जारी हुआ था। वह पास हुआ या नापास यह मधू को भी पता नही था।सिर्फ आज परीक्षाफल आने वाला है इतना ही पता था। मै मेरीट में आ सकता हूँ ये भी पता नही था।
दुसरा दिन निकल आया।पेपर में सिर्फ नाम और फोटो छपा था। मुलाकात ना होने से कोई भी उसकी प्रतिक्रिया नही छपी थी।
मधू परीक्षाफल देखने पाठशाला गया था। जैसे ही पाठशाला के अध्यापक की नजर मधू पर पड़ी। उन्होंने उसे पकड़ा।उसे प्रधानाध्यापक के पास ले गए। उनकी खुशी फुली न समाई। अध्यापको ने उसके साथ फोटो खिचाई ताकि वे पेपर में दे सके। फिर परीक्षाफल और प्रमाणपत्र उसके हाथ में देते हुए उसका अभिनंदन किया।
परीक्षाफल हाथ में आते ही मधू ने आगे की पढ़ाई के लिए आवेदन किया।अच्छे अच्छे महाविद्यालयों में गुण के योगदान से नंबर लगाना कठिन नही था। मगर आगे के पढ़ाई में बहोत सारा पैसा लगनेवाला था। जो पैसे गाँव से आये हुए थे।
कुछ दिन बित गये। मधू का नंबर अच्छे महाविद्यालय में लग गया। उसने फिर से छात्रावास में आवेदन किया। वहाँ पर भी आसानी से नंबर लग गया। लेकिन यहाँपर किताब तथा कपड़े नही मिले थे। फिर क्या?गाँव से आये पैसों से मधू ने किताबे ली। कपड़े खरीदे।फिर किराये का कमरा छोड़कर मधू छात्रावास में रहने के लिए आ गया।
मधू दिन में कॉलेज जाता और रात में अपना धंदा सँभालता।इसमें दो पैसों की आवक आती।वह पैसा उसके आम खर्चो के काम आता।तथा गाँव से आनेवाला पैसा जमा रहता।
मधू देखने में सुंदर था। कॉलेज के दिन में कुछ लड़कियाँ उससे प्यार करती थी। परंतु मधू उनपर ध्यान नही देता था। वह अपना ध्यान पढ़ाई में ही लगाकर रखता। मधू का सपना ज्यादा पढलिखकर बढ़ा आदमी बनना था। उसने गरीबी काफी नज़दीक से देखी थी। अतः प्यार के चक्कर में गिरकर अपनी जिंदगी बेहाल नही करनी थी उसे।इसलिए प्यार के चक्कर से वह काफी दूर रहना चाहता था।
मधू हरदिन कॉलेज जाता।कॉलेज में उसके विचारों को बड़ा आयाम मिलता। वैसे मधू ज्यादातर ध्यान अपने पढ़ाई में लगाता।ऐसे में दो साल कैसे बीत गये,मधू को पता ही नही चला। फिर क्या बारावी की परीक्षा देकर मधू ने राहत की साँसें ली।
इस बारावी की परीक्षा में भी शालान्त परीक्षा की तरह मेरीट में आकर मधू ने अपना स्थान पक्का किया। उसने मन ही मन परमेश्वर को याद किया। उसका धंंदा भी जोर पकड़ा जाने लगा। लेकिन अभी उसको लज्जा आने लगी धंदे में।क्योंकि वह बड़ा हो गया था। अच्छे अच्छे मित्रों के साथ बैठकर वह पुराने दिन भुल गया।
बारावी होने के बाद मधू आगे पढ़ना चाहता था।किंतू एक कॉलेज लड़की को लगा।मधू गरीब है उसका भविष्य बनना चाहिए। उसने कहाँ।
"मधू,तु तो बारावी हो गया। अब क्या करना चाहता है?"
"मै आगे पढ़ना चाहता हूँ।"
"मत पढ़।"
"क्यो?पढ़ना तो मेरा संकल्प है।"
"तुझे कौन कहता है कि मत पढ़।"
"जरा खुलकर बता तु क्या कहना चाहती है? मुझे कुछ समझ में नही आया।"
"तुझे पढ़ाई के लिए कौन रोखता है?किंतू तु ऐसी पढ़ाई पढ,जो तेरे काम में आये।तुझे नौकरी लगे।नौकरी के बाद तु और भी पढ़ाई कर सकता है।"
"मै तो ऑफिसर बनना चाहता हूँ।"
"ठीक है तेरी जैसी इच्छा।"
मधू ने सोच विचार किया। उसको उस लड़की की बात सही लगी और मधू ने अध्यापक की पढ़ाई की।उस वक्त अध्यापक को नौकरीयाँ जल्द ही लग जाती थी। फिर वह आगे की पढ़ाई पढ़ता गया।वह इतना पढ़ता गया कि वह अब ऑफिसर बन गया। उसके पढ़ने की ख्वाईस में बहन का तथा अधिकतम माँ बाप का पैसा गया। उसकी पढाई हेतू माँ बाप को खेती भी बेचनी पड़ी। तथा माँ बाप को खुदको भी बेचना पड़ा।
माँ बाप आज साहूँकार के यहाँ काम करते थे उनके दास बनकर।वे बूढ़े हो गये थे। साहूँकार के नाती भी उनके सामने इज्जत से पेश नही आते थे। वे करन और सरला पर अत्याचार करते थे।
मधू तो अॉफीसर बन गया। मधू के लिए माँ बाप तथा बहनों ने त्याग किया।बहनों ने भी खुद की जिंदगी मधू के पढ़ाई के लिए कुर्बान कर दी। ताकि वह पढलिखकर बड़ा आदमी बने। लोग उसे सलाम करे।
मधू घर का पैसा तो लेता था।क्योंकि उसे आवश्यकता थी।क्योंकि बुटपालिश से उसका खर्चा नही चल सकता था। माँ बाप भी कर्जा निकालते निकालते थक गये थे। फिर क्या खेती बेची,फिर अपनी जान।
मधू ऑफिसर जैसे ही बना।वह सब भुल गया। वैसे माधव के बकाने पर उसके दिल में माँ बाप के बारे में असुया भरी हुई थी। माँ बाप ने प्यारी बहना को बेचा ऐसा उसे लगताा था। लेकिन क्या हुआ होगा?यह बात जानने की कोशिश नही की।
बड़ी बहन संजू की हालत कुछ ऐसी ही थी। उसने तो अपनी शादी अपने लायक लड़के के साथ की थी। वो शहर रहता था। वह शहर रहता होगा,मगर उसे काम पर नही जाने देता था। कुछ गुंडे उसने भी पाल रखे थे। वह अपने औरत का ही जिस्म बेचता था। संजू के लिए कहाँ कहाँ से लोग लाता था गि-हाईक बनाकर।परंतु वह सब पैसा संजू के ही हाथ में थमाता था। संजू उसमें से खर्चा करती थी और बचा पैसा अपने आदमी को न बताते हुए मनीआर्डर करके माँ बाप को भेज देती थी। अतः माँ बाप वह पैसा मधू को।
वैसे कहाँ जाये तो संजू ने भागकर जो शादी की थी। उसे माँ बाप की ही मंजूरी थी। क्योंकि जब उसने शादी की थी,तब माँ से कहा था कि वह शादी सिर्फ मधू को पढ़ाने के लिए कर रही हैं। उसने साहूँकार के लड़के के साथ ऐसा ही करार किया है। जैसे ही माँ ने कहाँ,शादी करलो।संजू ने शादी गणपत से निपटा डाली। गणपत ने भी संजू से शादी करते वक्त आधा पैसा उसे देने का वादा जो किया था। मगर वह संजू के कमाई का पूरा पैसा संजू को देता था।
गणपत आलशी था। उसे काम करने में दिलचस्पी नही थी। संजू से शादी होने के बाद साहूँकार एक भी पैसा उसे नही देते थे। ना ही उसका हाल पुछते थे। शहर में मेहनत करने का जी नही करता था। वह लाड़ प्यार में बड़ा हुआ था।अतः उसने संजू को देह व्यापार के धंदे में बिठा दिया था। ताकि वह बड़े आराम से अपना जीवन यापन कर सके।
वह शैतानी दिमाग वाले साहूँकार का बेटा।उसके दिमाग में शैतान नही रहेगा तो कौन रहेगा?दो पैसे नही आयेगे,तो वह कैसे जियेगा? अपने बाप के पहचान की वजह से उसके बहोत सारे नेता लोग पहचान के थे। उन नेताओं के बिगड़े हुए लड़कोे के हवस का शिकार दिन ब दिन संजू बनती जा रही थी। उसको तकलीफ होती थी। मगर वह मजबूर थी।उसे लगता था कि ऑफिसर बनते ही उसका भाई उसे छुडवाकर ले जायेगा।
गौरी की भी जिंदगी उतनी खास नही थी। वह भी दिक्कतों का सामना कर रही थी। उसने अपनी शादी पचास साल के बूढ़े के साथ की थी। जो जमींदार था।वह शायद उस समय अठारह उन्नीस साल की होगी।वह बूढ़ा जमींदार जल्द ही मर गया। तथा उसे विधवा का दुःख सहना पड़ा।मात्र नंदीनी सुख में थी।
पढ़ाई का महत्व जानकर सभी बहना शादी होने के बाद भी माँ बाप को अपने खर्चों में से कुछ पैसा भेजती रही।सबसे ज्यादा पैसा संजू ही भेजती थी। माँ बाप भी उनका एक भी रुपया खर्चा न करके ज्यादा से ज्यादा पैसा मधू को भेजते थे। माँ बाप ने अपने लड़कियों की शादी नही की। बल्कि उन्ही लड़कियों ने माँ बाप को राहत देने हेतू अपने अपने पती का चयन किया।क्योंकि वे बहने जब घर में थे। तब वे माँ बाप का वार्तालाप सुनते थे। उनकी मजबूरी,पैसों की किल्लत महसूस करते थे।
माधव को मधू याद आता था। वह मधू गाँव भी नही आता था। माधव को बड़ा अफसोस होता था कि बेकार उसने मधू को उसके बहन की बात बताई। उसे लग रहा था कि मधू उसका दोस्त होने के बावजूद भी मधू के दिलमे उसके लिए नफरत भरी है। फिर भी मधू ने ठान लिया की वह मधू को मिलने जायेगा। खुद नौकरी के बारे में पुछताछ करेगा और अभी माँ बाप की जो हालत है। उसीके बारे में भी मधू को बताएगा।
बरसात का मौसम आया था। माधव के मन में नई तरंग निर्माण हुई थी। वह भी गरीब परीवार का लड़का था। मधू जैसे पढ़ने की उसकी इच्छा थी। लेकिन उसे पढानेवाला कोई नहीं था। उसके माँ बाप के यहाँ भी चार एकड़ भूमि थी। फिर भी पढ़ाई उनके सामने उतना महत्व नही रखती थी। खेती को माँ बाप बड़े चाहते थे।
बरसात का मौसम.......माधव सोच रहा था कि मधू ऑफिसर बना और मै बेरोजगार।काश! मै भी आज नौकरी पर लगा रहता।मेरी भी कुछ जरुरत पुरी होती।फिर उसके मन में आया।मधू तो ऑफिसर है।चाहे तो वह नौकरी लगवा सकता है।सिर्फ एकबार पुछ लिया जाये।फिर मधू को पुछने एकबार माधव मधू के कार्यालय पहुँचा।साथ मे वह भी विचार था कि मधू के माँ बाप साहूँकार के यहाँ किस तरह गुलामी करते हैं। उन्होंने मधू के पढ़ाई के लिए क्या क्या किया?
मधू बड़ा हो गया था। आज उसके पास पैसा,पानी,धनदौलत,गाडीघोडा,नौकर चाकर,बहोत थे। इसी वजह से उसे घमंड भी आया था। गरीबी के उपर जाकर भी उसके दिल में आज गरीबों की कोई इज्जत न थी। गराबों को वह पाप का फल समजता था। जिसने पाप किया हो।वही गरीबी में जनम लेता है ऐसा उसका मानना था।अमीर खुद भगवान होता है।अर्थात वह खुदको भगवान समजता था।
मधू के पास अब इतना पैसा था कि वह किसी को भी खरीद सकता था। उसे तो साहूँकार ने किए हुए अत्याचार याद थे।साहूँकार से बदला लेने की सँभावना पनप रही थी।
गरीबों के बारे में चल रहा उसका मन का विचार उसे शोभा नही दे रहा था। वह गरीबी मिटाने की बजाय गरीबों को ही मिटाना चाहता था।
भ्रष्टाचार लिप्त शासन।इस भ्रष्टाचार के चलते मधू ने काफी पैसा इकठ्ठा किया। मधू छोटे छोटे काम के लिए रिश्वत लेता।बिना रिश्वत के कोई कामही नही करता था। उसी के तहत वह धनवान बन गया। रिश्वत लेते समय उसे कोई डर महसूस नही होता था।
माँ बाप गुलामी के जंजीर में मधू के कारण फँसे थे। उनको मधू याद आता था। उन्हें लगता था कि एखाद दिन मधू आकर उन्हें ले जाएगा। किंतू मधू कहाँ था।वह तो भ्रष्टाचार की गोद में रंगरलिया मना रहा था।उसे यह भी पता नही था कि उसके माँ बाप कैसे होगे,तथा कहाँ होगे।वह यह सब बाते भुल गया था।
मधू जैसे ही बड़ा हो गया। उसे शादी की चिंता सताने लगी। मधू अपने ही एक कॉलेज की लड़की से प्यार करने लगा था। वह भी उसे चाहती थी। उसका नाम वैजयंती था।
वैजयंती दिखने में मधू जैसीही थी। उसकी निली आँखें,उस आँखों के पास काला तिल था। वर्ण गोरा तथा नासुकी सीधी थी। होठों पर नशीलापन था।चेहरा हसतमुख था।वह जब भी हँसती थी,मधू के दिमाग में जादू कर देती थी। इसलिए मधू उसे चाहने लगा था।
बरसो दिन बित रहे थे। मधू दिन ब दिन उसीका खयाल करता गया। मधू के नम आँखों में वह धीरे धीरे बसने लगी। मधू धीरे धीरे उसका दिवाना बनता गया। वे दोनो जब भी मिलते गये,उसे चाँदनी से चँदा मिले जैसा महसूस होते गया। वह माँ बाप का प्यार,पैसा,उन्होंने दी हुई कुर्बानी सब सब वह भुल कर वैजयंती से प्यार करने लगा था।
मधू और वैजयंती प्यार करते थे। मगर उन्हें पता नही था कि वे प्यार करते है। न ही उन्होंने आपस में प्यार की बातें की थी।वे तो बात करने को भी डरते थे। फिर भी एक दिन हिंमत करती हुई वैजयंती मधू से मिली। उसने पुछा।
"मधू तुम्हें माँ बाप नही है?"
"है।"
"कहाँपर पर है?"
"वो गाँव में है।"
"फिर उन्हे लाते क्यो नही?"
"नही,वे वहाँपरही खुश है।"
"क्यो?तुम उसे लाना नही चाहते?"
"नही, वे ही आना नही चाहते।"
"क्या तुम्हे पता है कि तुम शादी लायक हो गये हो?"
"हाँ,पता है।"
"फिर तुम शादी क्यो नही कर लेते?"
"शादी!"
"हाँ शादी।क्यो?क्या बात है?मै कुछ गलत तो नही बोली।"
"नही नही।"
"फिर बता,तुम शादी क्यो नही करते?"
"शादी करनी है,लेकीन......।"
"लेकीन क्या?"
"शादी लायक लड़की ही नही मिली।"
"कभी देखा है लड़की को?मेरा मतलब कभी लड़की देखने गये हो?"
"नही गया।"
"क्यो?"
"मेरे पहचानके कोई है ही नही।जो मुझे लड़की दिखाए।"
"क्यो? माँ बाप है नं।"
"मै माँ बाप के साथ लड़की देखना नही चाहता।"
"मधू एक पुछू?"
"पुछ।"
"तु घुस्सा तो नही करेगा।"
"क्यो घुस्सा करु मै?"
"मेरे तरफ देखो और देखकर बताओ कि मै कैसी दिख रही हूँ?"
"अच्छी दिख रही है। क्यो क्या बात है?"
"मै पुछ रही थी कि मै सुंदर हूँ की नही?"
"हाँ सुंदर हो।"
"मै कह रही हूँ कि तुम कह रहे हो?"
"तुम वैसे ही बहोत खुबसुरत हो।"
"इतनी अच्छी हूँ मै?"
"हाँ,परंतु तुम ये क्यो पुछ रही हो?"
"मै इसलिए पुछ रही हूँ कि.......।" वह शरमा गई और चुप रही।"
" कि का मतलब?"
"तुम मुझसे शादी करोगे?"
मधू सोच में पड़ गया। उसे बड़ा झटका लगा।कुछ देर बाद वह बोला।
"वैजयंती,क्या बोल रही हो तुम? तुम होश में हो या मजाक कर रही हो।"
"मधू मै मजाक नही कर रही हूँ। मै सच कह रही हूँ।क्या तुम्हे मेरी बात पसंद नही?क्या तुम मुझसे शादी करना नही चाहते?"
"तुम क्या बोल रही हो?तुम्हारे समझ में आ रहा है? होश में तो हो?"
"हाँ पुरी होश मे हूँ।तुम मुझसे शादी करोगे?"
"लेकिन तेरे माँ बाप,भाई बहन,रिश्तेदार,तेरे दोस्त क्या कहेंगे?"
"वह सबकुछ देख लुँगी मै।मै मेरे माँ बाप को मना लुँगी।रहे रिश्तेदार......उनकी मुझे पर्वा नही।रहे दोस्त,तो वे भी मुझे क्या कह सकते है।"
"लेकिन मुझे नही लगता कि तेरे माँ बाप राजी होगे।तेरे रिश्तेदार भी कदापि यह बात पसंद नही करेंगे। फिर भी हमने शादी कर भी ली। तो समाज हमे अच्छी नजरो से नही देखेगा।हमारी इज्जत होने पर भी समाज हमे बेइज्जत करता रहेगा। हम किसीको अक्कल देने लायक नही रहेंगे।"
"यह इधर उधर की बातें छोड़ो।मै जो पूछती हूँ उसका जबाब दो।"
"देख वैजयंती,,तु समजा कर।"
"हाँ या ना,बाकी बातें छोड़ो।"
"वैजयंती अगर मैने ना बोला तो.......।"
"देख मै तेरे दिलमें ना हूँ तो ना सही।लेकिन मैने तुम्हे कॉलेज दिनों से ही अपना पती मान चुँकी हूँ। मै जब भी तुम्हे देखती हूँ,प्यार ही नजर आने लगता है।जबकि तुमने अपना करीअर देखा।किंतू मै तुम्हे देखते आ रही हूँ।"
"तेरी बातें बराबर है वैजयंती,लेकिन........।"
"मै तुमसे प्यार करती हूँ।इसलिए मैने तुम्हे राय दी थी कि पढ़ाई करने के बजाय कुछ ऐसी पढ़ाई कर जिससे तुम्हे जल्द ही नौकरी मिले। तुम्हारा जल्द ही करीअर बने और हम दोनों शादी कर सके।"
"तुम्हारी बात बराबर थी। तुम चाहती थी कि मै जल्द ही नौकरी पर लगू और हमारी शादी हो जाये। लेकिन.....।"
"लेकिन क्या मधू?"
"तुमने अपना स्वार्थ देखा है वैजयंती।"
"इसमे मेरा स्वार्थ नही है। क्या प्यार करना भी स्वार्थ होता है?प्यार करना कोई गुनाह है?अगर गुनाह है,स्वार्थ है। तो मुझे वह सब मंजूर है।तुम जो समजना है वह समझो।"
"अगर मैने शादी नही की तो.........।"
"तो यह वैजयंती मर जायेगी। यह वैजयंती तेरे बिना जी नही सकेगी।"
"लेकिन मेरी एक शर्त है?"
"कौनसी?"
"शर्त यह की मै कुछ दिन तक शादी नही कर सकता।तुम्हे कुछ दिन रुकना होगा और दुसरी शर्त है कि.......।"
"दुसरी भी शर्त है?"
"दुसरी शर्त यह है कि इस विवाह के बारे मे माँ बाप को पुछना पड़ेगा। उन्हे तैयार करना पड़ेगा। वे अगर तैयार होगे।तभी मै तुमसे शादी करुँगा।"
"बस.......और कोई शर्त है क्या तुम्हारी?होगी तो और बताओ।नही तो बिच बिच में शर्त ही लाते रहोगे।"
"नही नही। मेरी दो ही शर्त है।"
"तो ठीक है,मै तुम्हारी दोनों भी शर्त पुरी करने का प्रयास करुँगी। लेकिन जब भी मै मिलने आऊँंगी,तब मुझे नफरत भरी आँखों से न देखना।या नफरत से पेश न आना।प्यार भरी निगाहों से देखना।"
"अर्थात?"
"अर्थात मेरे साथ घुमना।"
"हाँ हाँ,मै वैसा ही करुँगा।"
"तो ठीक है।मै अभी चलती हूँ।"
इस दिनसे वे दोनों घुमने फिरने लगे थे। साथ साथ नाश्ता भी करते थे। देर रात तक वे बगीचे में टहलते थे। वैजयंती भी देर रात तक रहती थी। उसे बुरा भी नही लगता था।
एक दिन देखकर माँ ने पुछा।
"वैजयंती,तु देर रातसे आती है।इसकी वजह क्या है?"
"नही तो माँ मै देर रात तक नही आती। एखाद बार हो जाता होगा।"
"तेरी बात बराबर है।लेकिन तु अभी अभी हरदिन ही देर से आने लगी हो।"
"नही माँ,मै अभी बराबर समय पर आया करुँगी।देर रात तक नही रुकूँगी।"
वैजयंतीने बोल दिया।माँ से कहने के बाद वैजयंती का दुसरा दिन था। वह मधू से मिलने आयी थी। मधू से मिलकर वह खुश नही थी। मायुसी चेहरे पर छायी हुई थी। इस मायुसी को मधू ने भाँप लिया और बोला।
"वैजयंती क्यो मायुस हो?तेरे शरीर में क्यो थकावट महसूस हो रही है?तेरी तबियत तो खराब नही।"
"मेरी तबियत ठीक है मधू।"
"तो फिर क्या बात है?"
"मेरी माँ कहती है कि तुम ज्यादा घुमने न जाया कर।इसलिए मायुस हूँ।"
"तो तुने क्या बोला?"
"मैने कहाँ कि माँ,मै एखाद दिन आ जाती हूँ देरी से।अभी नही आऊँगी। मधू आज से हम जल्दी जल्दी घर वापिस चलते जायेंगे।"
"ठीक है। तेरी जैसी इच्छा।"
"अभी मै चलती हूँ।"
"ठीक है।कल मिलेंगे।"
"हाँ हाँ।"
वह अपने स्कुटी के पास गई।स्कुटी पर सँवार होकर वह अपने घर चली गई।
मधू भी वहाँ से निकला और वह भी अपने गाडी पर सँवार होकर निकल पड़ा।
"बेटा,हर माँ बाप को यही चिंता बेटी की रहती है।"
"माँ मै क्या तुझे बिगड़ने वाली लड़की लगती हूँ।"
"बेटा तुझे क्या नौकरी करने की जरुरत है?"
"माँ जमाना बदल गया है। अभी तो दोनों पती पत्नी नौकरी करते है।करनी पड़ती है। महँगाई बढ़ी है न माँ।तु देखती है न माँ। फिर इसकी आदत भी तो होनी चाहिये।"
"तेरी बात भी ठीक है।अभी तो तु जवान हो गई हो और समजदार भी।"
"हाँ,ऐसा ही समझ।"
ग्रीष्म निकल आया था। इस बार भी शादी के लिए मधू ने टाल दिया था। बारिश का समय आया था। मधू विचार कर रहा था। उसको उसके बचपन की यादें ताजा हो गईं।वह जब खेत में काम करता।तब बाप कहता।
"बेटा,वह काम ना कर,जो काम से तु किसान बने। कुछ ऐसा काम कर जिस काम से तु पढकर ऑफिसर बने।पुरे समाज को सुधरा सके।"
आखिरकार माँ बाप न चाहते,तो मै ऑफिसर बन नही सकता था। मेरे लिए माँ बाप ने कितनी कुर्बानी दी। फिर भी मै ऑफिसर बनने के बाद उनसे मिलने भी नही गया। आज मेरे माँ बाप किस हालत में होगे।मुझे बहन के शादी में नही बुलाया।इसके पीछे भी कुछ गहरा कारण होगा।
मधू को आज गाँव की यादें सता रही थी। माँ कैसी होगी?बाप कैसा होगा?वैसे बचपन से ही उसने माँ बाप का प्यार खोया था। वे छोटेपन से मेरे सिवा कैसे रहे होगे।सिर्फ मेरे लिए इतनी कुर्बानी!यह सब सोच की बातें।फिर भी उसके पास अभी गाँव जाने को समय क्या था कि वह गाँव जाता।
मधू ऑफिसर जरुर था। लेकिन उसे इतवार के सिवा छुटी कहाँ मिलती थी। उसको तो ऑफिस आये या ना आये,उसकी तो चोबीस घंटे ड्युटी रहती थी। देर वैजयंती साथ बैठकर वह अपना सारा टेंशन हटा दिया करता था।
वैजयंती की हँसी मानो उसके दिल में प्यार जगा गई।एक दिन वैजयंती ने पुछा।
"मधू तम तो आजकल खोया खोया सा रहता है। अभी तुम शादी कर ही लो। कब तक कुँवारे बैठे रहोगे?"
"वैजयंती तेरी भी बात ठीक है। आखिर हमे शादी के बारे में सोचना ही चाहिए।
"मै भी कब तक मेरे माँ बाप से झुठ बोलती रहूँगी।"
"हाँ हाँ।"
"तो बताओ,कब करते शादी?"
"पहले अपनी माँ से पुछ लो।"
"मेरे माँ बाप पुराने खयालात के है। वह हाँ बोले या ना बोले,हम शादी करेंगे।"
"ठीक है।"
मधू ने हाँ कह दी थी। आज वह काफी खुश थी। मानों उसने आसमाँ को छुँ लिया हो। रात काफी हो गई थी। घर पहुँचने की देरी थी। उसने आसमाँ के तरफ देखा। चारों ओर अँधेरा छाया था। आसमाँ में तारे निकल आये थे। उसने अपनी स्कुटी बाजू में खड़ी की,तथा वह तारों के तरफ देखने लगी। वह तारों को गिन रही थी। तभी उसे एक तुटता तारा नजर आया।तुटते तारों को देखने के बाद उसे अपनी बात सच होती नज़र आई।उसे याद आया कि जब भी कोई तुटता तारा देखता है। उसकी मनोकामना पुरी होती है। उसकी मनपसंद चीज़ उसे मिल जाती है। जब भी कोई तुटता तारा देखता है। उसका देखा हुआ सपना पुरा होता है।
उसने हाथ जोड़े।मनमें ही प्रार्थना की कि उसकी बात सच हो।उसकी शादी जल्द से जल्द मधू के साथ हो।हालाँकि उसकी मनपसंद चीज तो उसका मधू ही था।
तारों को सबकुछ बताकर उसने आँखें मुँद ली। थोड़ी देर में तुटता तारा आसमाँ से अदृश्य हुआ।रास्ते पर की आवाज उसके कानों में गुँजी।तथा वह होश में आ गई। उसने अपना मोबाईल देखा तो उसमें साडेदस बजे थे।
"हाय,ये समय भी......जल्दी निकल क्यो जाता है।" उसने मन में ही कहाँ।वैसे वह जल्द से जल्द अपने स्कुटी पर बैठी। तथा घर आने तक उसे ग्यारह बज गये थे।
नऊ बजे से परेशान माँ की आँखें उसे ढूँढ रही थी। उसका फोन भी नही लग रहा था।वैजयंती का समय हो जाने पर भी और वह न आने पर वह काफी परेशान थी। कहाँ गई होगी लड़की?घर में बताकर तो जाना था। वह घर से बाहर निकलती।दस बार अंदर जाती।क्योंकि माँ थी वह।उसका दिल नही मान रहा था। बेटी जवान थी।शहर में बड़े बड़े हादसे होते थे। इसलिए वह चिंतीत थी।
देर रात तक वैजयंती न आने से माँ बाप को वह समय इशारा दे रहा था।इतने में वैजयंती आई।वह सीधे घर के अंदर गई।माँ के तरफ भी नही देखा। उसे डर था कि माँ से वह बात करे तो माँ उसे डाँट देगी।पिता तो लकड़ी से मार ही देगा। इसलिए वह चूप थी।
वैजयंती को चूप देखकर माँ और चिंता में पड़ी। तथा वह उसके पास गई और बोलने लगी।
"बेटा,क्या हुआ? कुछ ठीक तो है न।"
"हाँ,ठीक है माँ।"
"इतने रात कहाँ थी?"
"माँ,मेरे बाँस के यहाँ उत्सव था। उस समारोह में बैठी थी मै।अब पार्टी में तो देर लगेगी न माँ।"
माँ चुपचाप थी। लेकिन वैजयंती को देर हो जाना अच्छा नही लगा।वह कौनसा बाँस है आखिर,माँ यह जानना चाहती थी।
वैजयंती ने खाना खाया और वह बिस्तर पर जाकर लेट गई।राते के अँधेरे में सपने देखने.....।
रात देर सोने के बाद वैजयंती सुबह थोडी देरी से उठी।नाश्ता,भोजन करते करते दस बज गए। वैजयंती ने तैयारी की और ऑफिस जाने के बहाने निकल पड़ी। उसके पिता उसके पहले ऑफिस निकल चुके थे।
वैजयंती जाने के बाद माँ कुछ सोचने लगी। वह ऐसा कौनसा काम करती है कि उसे रात घर में आने के वास्ते देर हो जाती है। वैजयंती कुछ गुल तो नही खिला रही।रात के अँधेरे में कुछ मुँहकाला तो नही कर रही।आखिर इसका पता लगाना पड़ेगा।
जल्द ही माँ के दिमाग में उसकी सहेलियाँ याद आयी।जिनपर वह ज्यादा भरोसा करती थी। जिसको रात में उसने फोन पर पुछा वैजयंती के देर से आने का कारण।वह सहेली कुछ छटपटाकर बोली थी। उसे आज माँ ने फोन किया और घर पर बुलाया।बोली।
"बेटा,मैने रात में फोन किया था वैजयंती के लिए और उसीके लिए ही तुझे घर बुलाया है। क्या तुम बता सकती हो कि वैजयंती कोई ऑफिस में काम करती है?क्योंकि मुझे वैजयंती की हरकत कुछ अच्छी नही लग रही।"
आखिरकार वह माँ थी वैजयंती की।लड़की के बदलते हाँवभाव तेवर माँ को ही समजते थे। पिता का ध्यान नही था उधर।वे भी देर रात आते और खाना खाकर सो जाते।सुबह जल्दी उठकर तैयारी करते करते कब दस बजते,उन्हें पता ही नही चलता।
वैजयंती के बारे में उसके माँ ने पुछनेपर वह सहेली बोली
"आँटी जी,मुझे नही पता की वैजयंती कौनसा काम करती=किंतू इतना जरुर पता है कि वह काम करनेलायक लड़की नही है। मै उसे बचपन से जानती हूँ।"
"फिर उसके देर से आने का मतलब क्या होगा? कभीकभी कहती है कि बाँस ने देर से छुटी दी,तो कभी कभी कहती है कि ऑफिस में पार्टी थी।"
"आँटी,मुझे पता तो नही।किंतू मै इसकी छानबीन अवश्य करुँगी और आपको भी बताऊँगी।"
"जरुर जरुर,वह कहाँ जाती है?कहाँ नही?यह मुझे जरुर बताना और याद रहे कि इस बात की कोई भी खबर वैजयंती तक नही जानी चाहिए।"
"ठीक है आँटीजी,अभी मै चलती हूँ।"
माँ ने उस सहेली को विदा किया।कुछ देर वह शांत बैठी रही।शाम को जैसेही वैजयंती के पिताजी घर पर आये।उसके कानों के पास लगकर वह बोली।
"देखो जी,आपका घर पर कोई ध्यान क्यो नही है?"
"क्यो? क्या बात है?"
"अजी,अपनी वैजयंती अभी जवान हो चुँकी है।अब वह शादी करनेलायक हो गयी है। आप जल्द से जल्द रिश्ता ढुँढे और बच्ची के पिले हाथ कर दे।"
"क्यो? ऐसी कौनसी बात आन पड़ी है?"
"बात कुछ हुई नही।मगर अपनी लड़की शाम को देर से आने लगी है। कहती है कि बाँस देर से छुटी देता है। कभी कहती है कि बाँस के यहाँ पार्टी थी। मुझे तो संदेह है कि दाल में कुछ काला है।"
"तेरा तो काम ही है संदेह करना।अरे अभी तेरा जमाना नही है कि तु चाहे वह होगा। जमाना बदल गया है। इस बदलते जमाने में लड़के लडकियाँ घुमती ही रहती है। उन्हें देर नही होगी तो क्या?इसमे संदेह करने की जरुरत नही।"
"तुम तो बस।तुम्हारे ही लाड़ प्यार ने बिगाडा है वैजयंती को।अगर किसीका हाथ पकड़कर भाग जायेगी मुंह काला करके,तब समझ में आयेगा।तुम्हारी ही नाक कटेगी।"
"अब जमाना बदल गया भाग्यवान।अभी अगर मेरी बेटी किसीका हाथ पकड़कर चली भी जाएँगी।$तो भी मुझे अफसोस नही।"
"आप की बाते तो आपके ही पास रखो और जल्द से जल्द उसके लिए अच्छा सा लड़का देखो और उसके जल्द ही हाथ पिले कर दो।"
"ठीक है। जैसी तेरी मर्जी।मै कल से ही उसके लिए लड़का ढुँढता हूँ।"
उनकी बाते सुरु थी। इतने मे वैजयंती आ गई घरपर.उसने पिता के तरफ देखा और वह कमरे के भीतर चली गई।कुछ देर बाद पिताजी कमरे में आये।बोले।
"बेटा वैजयंती,क्या बात है?"
"कुछ तो नही पिताजी।"
"नही,कुछ तो बात है बेटा?"
वैजयंती के मन की बात पिता अमरसिंह को पता चली।उन्होंने वैजयंती के मन को भाँप लिया। उसकी खामोशी में कोई राज तो जरुर था। जो राज वह छुपा रही थी। उसके मन की बात निकलने के लिए पिताजी बोले।
"बेटा,जो भी कोई बात हो,वह मुझे बता दो।संकोच ना करो।मै कुछ नही कहूँगा।"
"नही पिताजी,कोई बात नही।"
"फिर भी लगता है बेटा कि तुम कुछ छुपा रही हो।"
"पिताजी,आप डाँटेंगे तो नही।"
"बेटा,खुलकर बता दो।हम आपसे कभी नाराज नही पेश आऊँगा।"
"वैजयंती का माँ से ज्यादा बाप पर भरोसा था।पिताजी कुछ भी नही बोलते थे।इसलिए वह अपने पिता से खुलकर बोलती थी। उसे पिताजी से डर नही लगता था। वह बोली।
"पिताजी,मै जो भी बोलूँगी।सच बोलूँगी।मै मेरी शादी खुद ही तय करुँगी।आप मेरे शादी के लिए कष्ट उठाने की जरुरत नही।"
"वह तो मैने पहले ही बता दिया है।"
"लेकिन माँ मेरी बात नही समजती और बार बार कहती है कि मुझे देर क्यो हुई?"
"हाँ बेटा,उसीका कारण पुछने मै तेरे कमरे में आया हूँ।बताओ तो बेटा कि तुझे इतना समय क्यो लगता?"
"हाँ तो पिताजी,मै ऑफिस में काम करती हूँ। कभी मेरा बाँस देर से छुटी देता है। तो कभी पार्टी रखता है।पार्टी में बड़े बड़े लोग आते है। देर हो जाती है।"
"नही बेटा,आप झुठ बोल रही हो। सच बता।मै कुछ नही कहूँगा। मै जानता हूँ तेरे मन की बात।"
"नही पिताजी,मेरी बात सच है। सौ प्रतिशत सच।"
वैजयंती पिता की बात मानकर खुश हुई। मानो शादी के बारे में पिताजी ने हाँ कह दी हो। वैसे पिताजी बोले।
"बेटा बता,क्या बात है?"
"पिताजी,मेरा मधू नाम के लड़के के साथ प्यार चल रहा है। लड़का सीधा साधा है।ऑफिसर बना है।वह मेरे काँलेज मे पढ़ता था। तब से ही वह मेरा दोस्त है। मैने शादी के लिए उन्हे ही चुना है। मै शादी करुँगी तो उनसे ही करुँगी।सिवा मै किसीसे शादी न करुँगी।"
"बेटा,तु उसे जानती हो?"
"हा पिताजी।"
"बेटा,तूने तो अच्छा लड़का चुना है। लेकिन.......।"
"लेकिन क्या पिताजी?"
"लेकिन न हम उनको जानते है,ना ही उनका खानदान।न उनके परीवार का पता है। न ही उनके रिश्तेदार पता है। वह कौनसे बिरादरी का है,ये भी नही जानते।"
"हमे उनके बिरादरी से क्या फर्क पड़ता है?"
"नही बेटा,फर्क पड़ता है। शादी तो अपने ही बिरादरी में होना चाहिए। दुसरे बिरादरी में शादी हो तो बहोत पछताना पड़ता है।मालुम है,ये जात,पात,धर्म क्यो पैदा हुए?जाती क्या फालतू निर्माण हुई?कुछ कारण अवश्य है कि शादी बिरादरी में करने की प्रथा है। अपनी बिरादरी सब बिरादरी से बड़ी है। इसलिए मै इसकी अनुमति नही दे सकता।"
"लेकिन आप ने तो कहाँ था मै कुछ न बोलूँगा।"
"कहाँ था। लेकिन ये शादी की बात है। लोगों को जब पता चलेगा,तब वे मार डालेंगे हमे।"
"पिताजी,जमाना बदल गया।इस बदलते जमाने में शादियाँ अपने मर्जी से की जाती है। किसीके दबाव मे नही।"
"तुम्हारी बात बराबर है। लेकिन मै एक पिता होने के नाते शादी का निर्णय नही दे सकता।"
"नही पिताजी,फिर भी.......।"
"बेटा,एक बेसहारा बाप आपके सामने खड़ा है।।एक समझ ले कि अगर तूने बिरादरी में शादी नही कि तो मेरा मरा मुख देखोगी।"
"पिताजी,अगर ऐसा है,तो मै शादी ही नही करुँगी।"
अमरसिंह चले गये वैजयंती के कमरे से।मगर वैजयंती बहोत सोचती रही देर रात तक।उसे लग रहा था कि पिताजी बराबर सोच रहे हैं।लाचार बाप एक तरफ है। तो दुसरी तरफ मेरा इंतहा प्यार।इन दोनों के बीच मै फँसी हूँ।करे तो क्या करे? एक तरफ माडर्न विचार वाला मधू है,तो दुसरी तरफ पुराने खयालात वाले मेरे पिता।अभी अभी पिताजी ने कहाँ कि अगर दुसरी बिरादरी में शादी करोगी तो मेरा मरा मुँह देखोगी।क्या करु?
वह सोचमें पड़ी थी। पिताजी के कहने पर बिरादरी में शादी करना कितना फायदेमंद साबित होगा। मानसन्मान रहेगा,प्रतिष्ठा बनी रहेगी। इज्जत भी रहेगी। मगर वह तो लड़के के ऊपर रहता है। अगर बिरादरी का लड़का अच्छा निकला तो ठीक,नही तो फिर अमंगल ही अमंगल।अगर वह पियक्कड निकलता है तो........पूरे जिंदगी का सत्यानाश।
आज मधू भी फिलहाल अच्छा है।मगर शादी के बाद अगर मधू बदल गया तो......."मगर क्या मै बिरादरी में शादी करके मधू को भूल पाऊँगी! क्या बिरादरी में शादी करके मै शकुन महसूस करुँगी!
वैजयंती बखुबी से सोचने लगी। शादी मधू के साथ करे या बिरादरी में।सोचने के चक्कर में वह खोई खोई सी रहने लगी। सच का पता तो पिताजी को चला ही था। अब आफिस का बहाना चलनेवाला नही है। उसने तब से बाहर जाना बंद किया।कमरे में ही दिन रात बैठी रहती।उदासी के चलते साये में उसकी जिंदगी कट रही थी।
कुछ माह ऐसेही बित गये।मधू काम में जुटा रहने लगा। उसे जब भी समय मिलता।वह वैजयंती को फोन लगाता।वैजयंती का मोबाईल बंद आता था।
मधू सोच मे पड़ गया था कि जो वैजयंती उसे फुली न समाती थी। वह बहोत दिनों से उसे मिलने भी नही आई। इतना ही नही,उसका फोन भी चालू नही है। मगर वैजयंती को सब पता था। वह जानबूझकर वैसा कर रही थी। मधू उसको फोन ना करे,इसलिए उसने फोन बंद करके रखा था।
वैजयंती ने बहोत सोचा।सोचते सोचते वैजयंती ने मधू से मुलाकात करने की बात मन में ठान ली।दुसरे ही दिन कुछ बहाना करके वह मधू को मिलने चली गई। उसको तनिक सामने देखकर मधू बोला।
"वैजयंती आओ। बहोत दिनों के बाद मेरी याद आई।"
"हाँ,कुछ ऐसा ही।"
"बोलो,कैसे क्या आना हुआ?"
"बस मधू ऐसे ही समझ।" तथा वह रो पड़ी।
"क्यो मधू?क्या बात है?क्यो रोती हो?"
मधू ने अपना रुमालल निकाला और वह वैजयंती की आँखें पोछने लगा। वैजयंती रोते रोते बोली।
"मधू तुम कितने अच्छे हो।"
"वह तो मै हूँ ही।" मधू बोला और हँस पडा।
"लेकिन मेरे माँ बाप!"
"क्या तुम्हारे माँ बाप अच्छे नही है!"
"हाँ,कुछ ऐसाही समझ।"
"क्यो?क्या बोले माँ बाप तेरे?देख वैजयंती,अगर तेरे माँ बाप शादी के लिए हाँ नही कह रहे तो ठीक है।तुझे उनका कहना मान लेना चाहिए और तुझे भी शादी करनी है तो कर,नही तो मत कर,मगर रो मत।"
"वे कहते हैं कि ब्याह अगर करना है,तो अपने बिरादरी के साथ ही करे।"
"तो ठीक है। तुम्हारी इच्छा क्या है?"
"मुझे तो वही समज में नही आ रहा कि ब्याह किससे करु?तुमसे या बिरादरीसे!"
"तेरा क्या कहना है?"
"तुम ही बताओ।"
"मेरी चिंता छोड़ दो।तुझे जहाँ अच्छा लगे,वहाँ कर।"
"मगर बिरादरी का देखते हुए अगर वह अच्छा नही मिला तुम्हारे जैसा तो।मेरी तो पुरी जिंदगी खराब हो सकती है।"
"एक सुझाव दूँ।"
"हाँ, दे दो।"
"बिरादरी, बिरादरी होती है। जहाँ इज्जत बनी रहती है। मानसन्मान,प्रतिष्ठा सब मिल जाता है।मेरे साथ शादी करके सिर्फ प्यार मिलेगा और कुछ नही। वह प्यार भी कब नफरत में बदल जायेगा,हमे पता भी नही चलेगा। इसलिए तु मेरी मान।तेरे पिताजी जो कहते है,वही कर।शादी बिरादरी में ही कर।मुझे सिर्फ अपना दोस्त समझ।जब भी समस्या आएगी।मुझे याद कर।मै जल्द ही दौड़कर आऊँगा।"
"फिर अपने प्यार का क्या होगा?इतनी कसम,इतने वादे......उनका क्या होगा?"
"वैजयंती,तेरी बात बराबर है। लेकिन ये बता,अगर तुने मेरे साथ शादी की,तो क्या तेरे पिताजी रहेंगे! वे तो परलोक सिधार जायेंगे।उन्होंने तो वही कहाँ न तुझे।"
"हाँ,तुम्हारे विचार अच्छे हैं।"
"हाँ, तो तेरा क्या कहना है इसपर?मै तो कहता हूँ कि तु अपने पिताजी की बात मान ही ले।"
"मुझे भी लगता है कि मेरे पिताजी ने ठीक ही कहाँ। फिर भी उनकी बात मुझे मंजूर नही है।"
"देख वैजयंती,आदमी तो पती रुप में कितने ही मिल जायेंगे तुझे,मगर बाप कभी लौटकर नही आयेगा। सोच ले।"
"ठीक है मधू। लेकिन इतना याद रखना कि मै तुम्हें कभी नहीं भूल पाऊँगी।तुम कैसे जिंदा रहोगे यह भी ख्याल है मुझे।"
"मै भी तेरे जैसी दुसरी वैजयंती ढुँढकर शादी कर लुँगा।"
"ठीक है। आप भी जरुर शादी करना।ये कसम है मेरी तुम्हें।"
"हाँ, तो ठीक है।"
"अच्छा मै चलती हूँ।"
"हाँ,ठीक है।"
वैजयंती चली गई।उसने बाप के कहेनुसार शादी भी कर ली। परंतु वह खुश नही थी। वह पल पल मधू की याद करती थी। उसके साथ मिलना,रोमांस करना।सारी बातें उसे याद आती थी। उसकी शादी सुधीर नामक लड़के के साथ हुई थी।
सुधीर माँ का मनचेला बेटा था। माँ जो भी बोलती,वह सुनता रहता था। माँ के कहने पर वह वैजयंती को मारता रहती था।कभीकभी वह इतनी शराब पीकर आता।तब उसे होश नही रहता था। उसके मुँह से शराब की बदबू आती थी। रोज रोज की मारपीट और सासू माँ की डकार सुनकर जी घबराता था। जिंदा रहने की इच्छा नही रहती थी। पिता के कहने पर वैजयंती ने बिरादरी का लड़का शादी के लिए चुना।मगर किंतू परंतु के चक्कर में वह सही नही निकला था। उसके शादी के निर्णय से एक की जान बच गई। लेकिन वह तो हर दिन फाँसी पर झुलस रही थी। मानों ऐसी दर्दभरी जिंदगी और वह आदमी कभी कभी छोड़ने की इच्छा होती थी। आखिर एक दिन उसने पती को छोड़ने का फैसला कर ही लिया।
आखिर वह दिन भी आ गया। एक हल्का सा झगड़ा घर में हुआ। वही झगड़े में वैजयंती के पती ने मारपीट की।तथा वैजयंती ने वही घुस्सा उसके माँ पर उतारा।माँ पर घुस्सा उतारने पर सुधीर ने वैजयंती को घर के बाहर निकाल दिया।
रात हो गई थी। वैजयंती रातभर बाहर रही।उसे लगा कि सुबह तक झगड़ा सुलझ जाएगा।सुधीर का घुस्सा ठंडा होगा। परंतु सुबह होने पर भी पती का घुस्सा ठंडा नही हुआ था।
वैजयंती पेट से थी। ठंडी का मौसम था।वैजयंती को याद आ रहा था। एक दिन रात में घरपर देरी से आने पर माँ चिल्लाई थी। मगर यहाँपर तो शादी सुदा बिबी वह भी पेट वाली.......कोई पर्वा भी नही थी उन्हें।शादी के बाद इतनी देर घर के कमरे से बाहर रखना एक शादीशुदा लड़के को शोभा नही दे रहा था। फिर भी पिता के खातिर वैजयंती सुधीर से दया की भीख रात से भुखी,प्यासी वैजयंती सुधीर से माँग रही थी। फिर भी सुधीर को उसकी दया नही आ रही थी। इसलिए वह सुधीर को छोड़ माँ के घर आ गई।उसने दरवाजा ठोका।
माँ ने दरवाजा खोल दिया।आगे देखा तो वैजयंती खड़ी थी। माँ बोली।
"वैजयंती तु!अचानक यहाँपर! क्यो?क्या हुआ?"
"माँ।" वैजयंती रो पड़ी।
"क्या हुआ बेटा?क्यो रो रही हो?"
"माँ......।" रोते रोते वैजयंती बोली।
"पहले अंदर आ बेटा।"
वैजयंती अंदर आई।माँ ने अंदर से दरवाजा बंद किया। वैजयंती को खुर्ची पर बिठाकर वह बोली।
"बता बेटा,क्या हुआ?"
"पहले मुझे खाना दो माँ।बड़ी भुख लगी है। मै भुख से तड़प रही हूँ।"
"पहले हाथ पाँव धो ले।मै जल्द ही रोटीयाँ बनाती हूँ।"
माँ अंदर गई।आटा गुँदा ही था। उसने दो चार रोटीयाँ डाली।वैसे वैजयंती हाथ पाँव धोने गई।
माँ ने वैजयंती को खाना दिया और बोली।
"बोल बेटा,क्या हुआ? क्यो रो रही हो?"
"नही माँ,कुछ नही हुआ।"
"फिर क्यो रही हो?"
"माँ तेरे दामादजी ने मारपीट की। वे हरदीन मारते ही रहते है। वे तो माँ के कहने पर चलते हैं। उन्हें तो खुदका दिमाख भी नही है। माँ आज तो मैने सासूमाँ के साथ मारपीट की तो तेरे दामादजी घुस्सा आ गया। उन्होंने मुझे तो मारा ही।बल्कि भुख प्यास से तडपाया। इसलिए मै चली आई माँ।"
"तो ऐसी बात है। अब आने दो उन दामादजी को।देखती हूँ मै।" माँ चिल्लाकर बोली।
"हाँ माँ। मै तो अभी वहाँपर नही जाऊँगी।"
"लेकिन बेटा,इसमें अपनी इज्जत जायेगी और बिरादरी की भी।"
"भाड़ में जाये ऐसी बिरादरी माँ।जहाँ औरत की इज्जत नही है। जहाँ औरतों को,कसाई बकरे को जैसे हलाल करता है,वैसे हलाल किया जाता है। जहाँ बिरादरी के नाम पर औरतों के सम्मान का खिलवाड़ होता हो।ऐसी बिरादरी मुझे नही चाहिए अभी।"
माँ की बातें चालू ही थी। उतने में पिताजी आये।उन्होंने बेटी को देख कहाँ।
"कब आई बेटा?"
"कुछ देर के पहले।"
"अकेली आई हो या दामादजी साथ में है।"
"अकेली ही आई हूँ।"
"क्यो? दामादजी क्यो नही आये?"
"दामादजी ने मारा है इसे।" माँ बोली।
"क्यो? क्या हुआ? कुछ गलती होगी इसकी?"
"हाँ,इसमे सासूमाँ को मारा।"
"तो बराबर है। सासूमाँ माँ का ही तो पदचिन्ह है। इसलिए मारा होगा।"
"क्या आप जानते हो पिताजी कि सासूमाँ कैसी है। वह तो मुझे ही मालुम है न। मेरी सासुमाँ जैसे जैसे लड़के को बताती है। वैसे वैसे लड़का मारता रहती है।"
"हाँ,ऐसी बात है।"
"माँ,मै नही जाऊँगी उनके यहाँ।मै मर जाऊँगी।परंतु वहाँ नही जाऊँगी।"
"नही बेटा,ऐसा नही करना।तु आराम से सो जा।कल का कल देखेंगे।"
माँ बाप सो गये थे। मगर वैजयंती थकी होने पर भी उसे नींद नही आ रही थी। फिर भी वह नींद लेने की कोशिश कर रही थी।कुछ देर बाद वह सो गई।
सबेरा हो गया था। माँ के साथ साथ वैजयंती उठी। माँ ने चाय दिया वैजयंती को और बोली।
"बेटा,दो चार दिन रुक जाने के बाद चली जाना जमाई के यहाँ।हम उनसे बात करेंगे।"
"नही माँ। मै नही जाऊँगी।"
"बेटा,जीद मत कर।अभी तु बच्ची नही है। ब्याह होने के बाद औरत को अपना घर नही,अपितू अपने पती का घर देखना पड़ता है।"
"ठीक है। अगर आप मुझे भेजना ही चाहते हो तो ठीक है। मेरा मरा मुँह वहाँपर कुछ दिनों के बाद देखने को मिलेगा। पिताजी ने कहाँ था न कि मैने अगर बिरादरी में शादी नही की,तो वे मरा मुँह देखेंगे मेरा।मै भी वही कहती हूँ। क्योंकि मैने पिताजी की बातें मानी और अपने पैर पर खुद कुल्हाडी मार दी। आप मुझे अभी बता दे कि आप मेरे वजह से परेशान है। मै चली जाऊँगी कही ओर।कही भी रह लुँगी।मगर आपको कभी परेशान नही करुँगी। मगर वहाँ तो मै कभी नही जा सकती।"
"बेटा,तुझे वहाँ नही जाना होगा तो मत जा।परंतु तुझे कही जाने की जरुरत नही।"
"माँ आपने जबरदस्ती मेरा ब्याह बिरादरी में किया है।मुझे ब्याह करने पर विवश किया है। अतः मै दुःख सहन कर रही हूँ। माँ अगर मै अपने मन से निर्णय लेकर शादी करती,तब माँ मै आज कितनी खुश रहती।"
"बेटा यह सब नसीब का खेल है। जो नसीब में लिखा होता है। वह सब सबको भुगतना पड़ता है। तेरे नसीब में भी जो लिखा होगा। वह तो तुझे ही भुगतना पड़ेगा।"
"नसीब वसीब कुछ नही है माँ। मुझे यह रास्ता आपने जानबूझकर चुनने को कहाँ।मैने शादी का निर्णय कितने कठोर मन से लिया है। पता है माँ,मैने मधू को जब छोड़ा। तब मेरा मन क्या कहता होगा?पता नही आज मधू कहाँपर होगा?किस हालत में होगा?उसके मन पर क्या बिती होगी?पता है माँ,जैसे ही मैने कहाँ कि मै बिरादरी में शादी करती हूँ,,तब वह खुशी खुशी राजी हुआ।"
"मतलब वह स्वार्थी है।"
"वह स्वार्थी नही है माँ। वह बड़ा दिलवाला था।मगर आप अभी भी उसके प्यार को स्वार्थी कहती हो,उस प्यार को स्वार्थ से सजाती हो।प्यार विश्वास,त्याग,बलिदान से सजता है। वही किया था मधू ने।मानो तो माँ तुम दोनों नेही तो मेरा सर्वनाश किया।" इतना कहकर वह रो पड़ी।
"बेटा, ऐसे रोना नही।मै अपनी गलती सुधारना चाहती हूँ।सुधीर को अवश्य ही पाठ पढायेंगे।" वैजयंती चूप हो गयी।माँ भी चूप हो गयी।वह कुछ देर बाद अंदर दुसरे कमरे में चली गई। कमरे मे जाने के बाद वह व्यथित जिंदगी के बारे में सोचने लगी।


वैजयंती के बाद मधू खोया खोया सा रहने लगा। उसे कुछ दिन तक वैजयंती की याद आ रही थी। वैजयंती से मुलाकात करने की याद आ रही थी। लेकिन उसे मालुम हो गया था कि वैजयंती की शादी हो गई है।वह भी बिरादरी में। फिर उसने जीवनभर शादी न करने का फैसला लिया था। जब भी वैजयंती की याद सताती,वह मधू परेशान होता। इसलिए मधू ने वैजयंती के बारे में सोचना बंद किया था।
मधू एक ऑफिसर बनकर उभर आया था। उसे उसको गाँव की यादें सताने लगी थी। सिर्फ थोडीशी सोच की वजह से मधू को दुःख हुआ था कि माँ बाप ने बहन को बेचा।शादी में बुलाया नही।इसी बात की वजह से वह गाँव में जाता न था।उसको लगता था कि माधव की तरह पुरा गाँव उसको कुछ न कुछ कहेगा।जो बाप माँ बाप से कहते थे। उसको उसके माँ बाप की कृती अच्छी लगती थी।
नफरत भरे मन में अचानक माँ बाप की याद उभरकर आई। वह याद चूप नही बिठा रही थी। तब तक याद नही आई,जब तक वह वैजयंती से मिलता रहा।लेकिन जैसे ही वैजयंती की शादी हुई। उसे माँ बाप की याद आने लगी। वह याद उतनी आती थी कि उसे रहा नही जाता था।
एक दिन मधू बैठा था,तो उसे माँ बाप की याद आई। उसे माँ बाप की चिंता सताने लगी। आखिर वह माँ बाप का लड़का था। माँ बाप तो बहन के पास जाकर रह नही सकते थे। मधू को लगा कि माँ बाप तो बहन के पास जाकर रह सकते थे। मधू को लगा कि माँ बाप शायद बूढ़े हुए होंगे। उनको मेरी याद आती होगी।इसलिए माँ बाप से मिलना चाहिए।
मधू ने चार चाकी गाडी लेके रही थी। उसे समय नही मिलता था। इतना वह काम करने लगा था। लेकिन वैजयंती नही होने के बाद वह गाँव जाने के लिए तैयार हो गया था। दुसरे ही दिन तैयारी करके वह गाँव चला गया।
गाँव जाने का रास्ता आज पुरा बदल गया था। सँकरी रस्ते आज चौड़े हुए थे। रास्तों के आजुबाजू में कारखानों तथा दुकानों की लाईने लगी थी। रस्ते पर के वाहनों की संख्या बढ़ गई थी। रास्तों के बीचोबीच डीव्हायडर डाले हुए थे। उस डीव्हायडर के बीचोबीच लाईट भी लगे थे।गाडी चलाते चलाते मधू विचार कर रहा था। मेरे माँ बाप कैसे होगे?खेती होगी या बेची होगी?माधव कैसा होगा? साहूकारों की साहूँकारी खत्म हुई होगी या चालू होगी?आदि प्रकार के प्रश्न मधू के सामने खड़े थे।
कुछ देर बाद गाँव आया।मुख्य रस्ते पर से मधू ने गाड़ी घुमायी।कुछ देर बाद वह घर पहूँचा।देखा तो,घर उसका था।मग वहाँपर माँ बाप न थे। वहाँपर दुसरे ही लोग थे। मधू गाड़ी से उतरा।वह घर के दरवाजे पर गया।दरवाजा ठकठकाया।तब एक जवान सी लड़की सामने आई। बोली।
"कौन चाहिए?कौन हो आप?"
"मै मधू,इस घर का मालिक।मुझे मेरे माँ बाप चाहिए। आप कौन हो?"
"कौन मधू?कौनसे माँ बाप?हम किसी मधू को नही जानते और ना ही माँ बाप को जानते उनके?"
"कब से रह रहे यहाँपर?"
"बहोत दिन हुए।"
"लगभग कितने दिन?"
"पता नही।मै इन घरवालों की बहू हूँ।"
"बहू।"
"हाँ बहू हूँ मै।"
"पहले कौन रहता था पता है आपको?"
"पता नही,आप शाम को आओ। पुरी बात पता कर लो आकर।"
मधू सोच में पड़ गया। ये लोग कौन है? कैसे रह रहे हैं?कब से रह रहे हैं? मेरे माँ बाप कहाँ है? कहाँ गये होगे?आदि प्रश्न उसके दिमाग में थे।
मधू ने गाडी चालू की।अपना समय बिताने वह माधव के घर पहूँचा। लेकिन माधव भी घरमें नही था। फिर वह गाँव के चौपाल पर चला गया।
समय बितता गया।शाम हुई।शाम में उस घर के लोग भी आये होगे ऐसे मधू को लगा और वह गाँव के चौपाल से निकलकर घर में आया।पुछताछ पर पता चला कि वह घर उसके माँ बाप ने बच्चे के पढ़ाई हेतू बेच दिया है और वह अभी साहूँकार के घर में दास बनकर रह रहे हैं।बच्चे के पढ़ाई के लिए उन माँ बाप ने काफी तकलिफ की।लेकिन बच्चा बेवकुफ निकला।वह कभी माँ बाप से मिलने तक नही आता।पुछताछ के बाद वह माधव के घर गया था।
शाम में माधव भी घर मे ही था। माधव के घर वह चायपानी पिया और माधव के साथ वह बात करने लगा। माधव कह रहा था।
"तुम्हारे माँ बाप के पास पैसा ना होने से गाँव का मकान तुम्हारे माँ बाप ने बेच दिया। तेरे पढ़ाई के लिए तुम्हारा खेत भी साहूँकार ने दबोच लिया। आखिर साहूँकार का कर्जा इतना था कि उस साहूँकार ने तेरे माँ बाप को अपना दास बनकर अपने घर में रखा।वे लोग तेरे माँ बाप पर अत्याचार भी करते होगे। मधू तेरे पढ़ाई के लिए तेरे माँ बाप ने खेत खलियान,घरदार,अपनी लड़कियाँ और इतना ही नहीं खुदको भी बेच डाला। धन्य वह माँ बाप।ऐसे माँ बाप सबको मिले।ऐसे माँ बाप नसीबवालों को ही मिलते हैं।
"हाँ माधव,किंतू मै अपने माँ बाप को पहचान न पाया।"
"और पता है,तेरे पढ़ाई के लिए तेरे बहनों को कितनी तकलीफ हो रही होगी। तु अभी खोज करके उनकी तकलिफ दूर करने का प्रयास कर।"
"मेरे माँ बाप को भी लेके जाना चाहता हूँ। वे अभी कहाँ होगे?"
"............." माधव चूप था।
"माधव बोलते क्यो नही? मेरे माँ बाप कहाँ होगे? मै अभी उनकी सेवा करना चाहता हूँ।"
"........." माधव फिर भी चूप था। वैसे मधू बोला।
"माधव,बोल न कुछ,मेरे माँ बाप कहाँ होगे?"
"मधू,वे तो दो साल पहले ही गुजर गये।वे माँ बाप,जिन्होंने तेरे लिए सबकुछ किया और अंतिम समय तेरा कँधा तक नसीब नही हुआ।"
"हाँ माधव मै अभागा।मै अपराधी हूँ इन सबका।मुझे भगवान माफ नही करेगा। न मुझे बहन की शादी नसीब हुई। ना माँ बाप की मौत।ऐसा नसीब बनना नही चाहिए किसी का।अभी तक तो मुझे मेरे माँ बाप पर घुस्सा आता था। अभी तो मुझे मेेरे शरीर से ही नफरत दिखाई दे रही है।"
"मधू इसमे तेरा दोष नही है। यह तेरे नसीब का दोष है।काश!तेरा नसीबही ऐसे लिखा होगा।"
"नही माधव,आदमी खुद अपनी तकदीर लिखता है।"
"देख मधू,लोग अपने शौक के लिए बिबी बच्चों को दाँव पर लगा देते है।कोई अपने पेट के लिए खेत बेच देते हैं। किसीका खेत कर्जा देने में चला जाता है। लेकिन यहाँ तक मै देख रहा हूँ कि पढ़ाई के लिए घर दार खेत खलियान कोई नही बेचता। जो काम तुम्हारे माँ बाप ने किया है।आखिर खुदको भी बेच डाला। फिलहाल तो लोग ऐसे है कि जो पैसे नही होने पर पढ़ाई रोक दिये रहते।तेरे माँ बाप ने जो तेरे लिये किया।उसकी कोई कल्पना भी नही कर सकता।तेरे माँ बाप मरने के बाद जब साहूँकार को तेरे माँ बाप का महान त्याग पता चला,तो उन्होंने खेत में ही तेरे माँ बाप की समाधीयाँ तैयार की।जो खेत अब उनका नही रहा।समाधायाँ इसलिए तैयार की कि आनेवाली पीढ़ी को तेरे माँ बाप के बारे मे पता चले और आनेवाली पीढ़ी अपने बच्चों को कौनसी भी हालत में शिक्षा दे सके।"
"कितने महान थे मेरे माँ बाप।माधव मै उनको पहचान न पाया कि वे महान थे।"
"हाँ मधू,वे लोग महान थे। उनकी सब बातों से पता चलता है कि पढ़ाई के लिए जान तक देना पड़ता है।"
"लेकिन क्या माधव,पढ़ाई इतनी महत्वपूर्ण चीज़ है कि पढ़ाई के लिए मेरे माँ बाप ने........।"
"हाँ मधू,पढ़ाई महत्वपूर्ण चीज़ ही है। आज हमारे गाँव के लोग तेरे पिता माता का त्याग देखकर पढ़ने लगे है। गाँव सुशिक्षीत बनता जा रहा है। गाँव का हर आदमी पढ़ाई का मतलब जानने लगा है। तेरे माँ बाप मृत्यू के बाद एक आदर्श बन गये है।गाँव का हर आदमी अपने छोटे छोटे लड़के को पढ़ाने लगे है। पढ़ाई से सब बदलने लगा है। लोगों के समज में आ रहा है कि साहूकारों का कर्जा भी पढ़ाई से ही उतर जायेगा।"
"माधव वह बात जाने दें। मै आज तेरे घर में रहता हूँ। कल मुझे मेरे माँ बाप की समाधीयाँ दिखाना।मै उन समाधीयों से मिलुँगा।मुझे उन समाधीयों से मिलकर शकून महसूस होगा।"
"मधू इस घर को तु अपना ही घर समझ।"
मधू उस दिन माधव के घर रुका।रात में माधव के घर खाना भी खाया।खाने के बाद वह खटियाँ पर सोया।सोते सोते उसे विचार आया।'मेरे माँ बाप कितने अच्छे थे। मेरे खुद के पढ़ाई के लिए कितना बड़ा त्याग।मेरे लिए खेत बेचा,बेटियाँ बेची।खेत खलियान तथा खुदको भी बेच दिया। आज वे लोगों के लिए मिसाल बने है।'
सुबह मधू जल्द ही उठ गया।उठते ही मधू ने हाथ पाँव धोये।तथा बाद में वह माधव से बोला।
"माधव,चल।हम वह समाधीयाँ देखकर आते हैं। फिर तुझे तेरे काम पर जाना पड़ेगा।"
"हाँ,तेरी बात बराबर है। चल तुझे तेरे माँ बाप से मिलाता हूँ।"
माधव,मधू के साथ मधू के माँ बाप की समाधीयाँ देखने चला गया। माँ बाप के समाधीयों के पास जैसे ही मधू पहूँचा।कुुछ अलग सी चमक मधू ने महसूस की।मधू को लगा कि वह अपने माँ बाप से सिधे ही मिल रहा है। माँ बाप के मृत्यू के पहले जैसे वह मिलने आता था। मेरे माँ बाप मरे नही,जिंदा है,ऐसे कुछ समय लगा। लेकिन कुछ देर बाद माँ बाप की समाधीयाँ दिखी।तथा वह होश में आ गया।
माधव और मधू,मधू के माँ बाप के समाधीयों के पास गये।समाधीयों पर माथा टेका और मन ही मन माँ बाप से बात करने लगा। ऐसे महसूस करने लगा कि माँ बाप खुद बात करते हैं। बरसों से जुदा हुआ लड़का अब माँ बाप मिल रहा। ऐसे मधू को लग रहा था।
कुछ समय बीत गया। मधू समाधीयों के पास खड़ा होकर होश खखोया है।माधव यह सब देख रहा था। तब मधू से वह कहने लगा।
"मधू देर हो रही है। अभी चलते हैं।"
"हाँ हाँ,चलते हैं। मै भी कितना पागल हूँ कि जिंदे वक्त नही मिल पाया माँ बाप से और मरने के बाद यहाँ खड़ा हूँ टाईमपास करने।मेरी यादें जिंदा कर रहा हूँ।"
इतने में साहूँकार का नौकर आवाज लगाते आया। बोला।
"कौन हो आप?"
"मै माधव और ये मधू।"
"आपको तो पहचानता हूँ। मगर ये साहाब कौन है?"
"ये जो सामने समाधीयाँ दिख रही न।ये इन साहाब के माँ बाप है।"
"लेकिन वे तो बता रहे थे कि हमे कोई संतान नही। लेकिन कुछ दिन बाद साहूँकार ने ही बताया हमे संतानों के बारे में।"
"मै बाहरगाँव का हूँ।यहाँपर नौकरी करने आया हूँ।" मधू बोला।
"हाँ, इसलिए आप मेरे माँ बाप के बारे में नही जानते हो।"
"लेकिन साहूकार तो जानते होगे।"
"यह मुझे पता नही।साहूँकार ने तुम्हारा पता लगाने की बहोत कोशिश की।मगर आप नही मिले।एक ही दिन दो चार घंटों के अंतराल के बाद दोनों ही चल बसे।उनको पासनेवाला नही होने के कारण हमारे साहूँकार साहाब ने ही बचे काल में तुम्हारे माँ बाप की सेवा की।बदले में खेत खलियान सब लिया होगा। सुना है कि तुम्हारे माँ बाप ने तुम्हारे लिए खेत खलियान और खुद को भी साहूँकार को बेच दिया।साहाब ने यह समाधीयाँ इसलिए बनाई कि यह समाधीयाँ मिसाल बने पढ़ाई की।गाँव के लोग इन समाधीयों देखकर अपने बच्चों को पढ़ाये।"
नौकर की बातें सुनकर मधू हड़बड़ा गया। माधव उनकी बातें सुनते हुए चुपचाप खड़ा था। माधव ने जो कहाँ था। वही बातें नौकर ने भी कही थी।
मधू बोला।
"देखो,मै वही अभागा लड़का हूँ।जो अपने माँ बाप के मरने पर भी न आ सका। ना माँ बाप को कँधा देना नसीब हुआ।मै वही खुदगर्ज इन्सान हूँ कि जिसे उनके अंतिम समय में माँ बाप की सेवा करने का अवसर प्राप्त नही हुआ। मेरे पास गाडी,बंगला,घरदार,पैसा,पानी सबकुछ है। मगर माँ बाप का प्यार नही है। आज बरसो दिनों के बाद गाँव आया हूँ। देखा तो माँ बाप गुजर गये है। ऐसी पढ़ाई मेरे कौनसे काम की।जिससे मुझे शकून ना मिले।मै तो इतना पढ़ा हूँ,मगर अभी लगता है कि शायद मै नही पढ़ा होता तो अच्छा होता।"
नौकर बोला।
"देखो साहाब जी,आपके पिताजी को मरते वक्त कितना बुरा लगा होगा। किंतू मरने के बाद कौन देखता है कि लड़का कँधा देता है क्या नही।इसलिए मै आपको सलाह देता हूँ कि इसमे बुरा मानने की जरूरत नही।"
"जाने दो वह बिती बाते।अभी हम चलते हैं।"
फिर वह माधव से कहने लगा।
"माधव चल अभी हम घर चलते हैं। तेरे काम का भी तो समय हो गया होगा।"
"माधव हाँ,मेरे काम का समय हो गया। अभी हमें निकलना चाहिए।"
वे घर निकलने लगे।मधू ने एकबार और माथा टेका और बोला।
"हे पुण्यात्मा आत्माओ,मै मुझे मालुम न पडने पर मै नही आ सका। आप मुझे माफ करो।"
यह बात सुनते हुए नौकर बोला।
"देखो,हमारे मालिक ने आपको ढुँढने की बहोत कोशिश की। आपका पता भी नही चला।अब आप आ ही गये हो तो हमारे मालिक को मिलकर जाना।"
"नही नही। फिर कभी आयेंगे।मात्र मालक से कह देना कि मधू आया था। समाधीयों पर माथा टिकाकर गया।"
"ठीक है। बता दूँगा।"
माधव और मधू घर आये थे। घर में खाना तैयार ही था। माधव ने जल्द से स्नान किया। मधू से बोला।
"मधू,तुम भी स्नान कर लो।"
"हाँ,मेरी चिंता मत कर।मै धो लूँगा।"
"नही नही। अभी कर स्नान।स्नान से अच्छा लगता है।"
माधव ने पानी डालकर दिया अपने दोस्त मधू को।खाना पिना भी हो गया और मधू गाँव जाने को तैयार हो गया। वह माधव से बोला।
"माधव,मुझे याद रखना।मुझे मिलने आना और कभी अफसोस ना करना।जब भी जरुरत हो।मै दौड़कर तुम्हारे पास आऊँगा।अभी मै चलता हूँ।"
मधू ने अपनी कार चालू की और वह निकल गया। धीरे धीरे चलती कार मुख्य रस्ते पर आ गई।वह सोचने लगा बिदाई के बारे में।बहनों की बिदाई ना मिले,ना सही।परंतु माँ बाप के मैयत की अंतिम बिदाई भी मेरे नसीब में नही।अाखिर क्या पाप किया मैने?कौनसा पार किया कि मेरे नसीब में यह सब नही मिला। ये पाप कैसे समाप्त होगा?
माथे पर छाया पाप,जोशीला मन,उस मन में पुण्य के बदले पाप जाग गया।अब के बाद वह जितना पाप वह करता,उस पाप से वह खुश होता था। उसे मालुम था कि बूढ़े वक्त पैसा ही काम में आता है। मेरे बाप के पास अगर पैसा रहता,तो मेरे बाप को मुझे पढ़ाने के लिए मेरे बहन को तथा खेत खलियान को तथा खुदको बेचना न पड़ता। इसलिए वह पैसा जमा कर रहा था। चाहे वह भ्रष्टाचार करके क्यो न कमाया जाये।
माधव.......माधव चरक नाम था उनका।एक सामान्य व्यक्ति।वह गरीब था तथा देहात में रहता था। परंतु वह भी पढ़ा था। मगर मधू इतना नही पढ़ा था। वह इतना पढ़ा था कि अपनी रोजी रोटी ढूँढ सके। परंतु उसके पास पैसे नही थे। अतः कोई पहचानका नही था। ताकि उसे नौकरी लग सके।
माधव गरीब था। उसके माँ बाप के पास खेत खलियान नही था। वे मेहनत मजदूरी करते थे दुसरों के खेत में।जब माधव बड़ा हुआ,तब नौकरी न मिलने पर वह भी लोगों के खेत में मेहनत मजदूरी करने लगा था।
उसके माँ बाप को लगता था कि उनका भी बेटा पढ़े और बढ़े। परंतु उनके पास उतना पैसा नही होने से वे माधव को कम पढ़ा पाये.उनको पढ़ाई का महत्व पता भी न होने उन्होंने अपने लड़के को पढ़ाया न था।
माधव मधू का बचपन का दोस्त था।मधू ने जब उसे उसके पत्ते का कार्ड दिया। तो उसके दिल में थोड़ी सहानुभूति आ गई। उसे लगा कि उसका दोस्त उसे नौकरी दिला सकता है।वैसे खेत खलियान में काम करते वक्त वह थक गया था। ज्यादा पसीना बहाकर भी उतनी मजूरी न मिलने की वजह से वह परेशान था। इसलिए ज्यादा कमाने के चक्कर में माधव शहर जाना चाहता था।
एक दिन माधव ने सोच लिया कि वह मधू से मिले।उससे अपने नौकरी के लिए बात करे। वह तो ऑफिसर है।उसके बहोत से लोग पहचानके होगे।वह चाहे तो नौकरी दिलवा सकता है। सोचने का अवकाश,माधव अपने औरत से कहकर गाँव चला गया मधू से मिलने।
शहर काफी बढ़ गया था। वहाँ बड़ी बड़ी इमारतें थी देखनेलायक।लोगों की तथा वाहनोंकी अंबार लगी थी। शकून की जिंदगी नही थी गाँव जैसी।फिर भी उतने बड़े शहर में मधू को खोजतो हुए माधव चल रहा था। वह शहर की पानठेले तथा रिक्षाचालको को मधू का पत्ता पुछने लगा।आखिर उसने मधू को ढूँढ ही लिया।मधू को देखने के बाद माधव बोला।
"मधू कितनी तकलिफ हुई तुझे ढूँढने।"
"आखिर मिल गया न मेरा पत्ता।"
"हाँ,तु तो माहिर है।अपने गाँव जैसा नही है शहर।काफी बढ़ गया है। यहाँ जुतों की पालिश भी जुतें उतारकर नही की जाती।खाना भी खाते है तो जुतें पहनकरही।कमाई के वास्ते दूर दूर जाना पड़ता है। किसी के साथ बात करने को फुरसत नही मिलती।बात करना ही है तो चलते चलते बात करना पड़ता है।"
"ऐसा भी है।"
"हाँ,ऐसा भी है। तु बोल किसलिए आना हुआ?"
"मैने भी सोचा कि मेरा दोस्त अगर ऑफिसर बना है तो आखिर उसका ऑफिस कैसा होगा? इस वजह से मै मिलने आया हूँ।"
"हाँ हाँ, अभी जाना नही माधव।अभी थोड़ी देर से मेरा ऑफिस छुटेगा।उ उसके बाद घर चलते है।"
थोड़ी देर में अँंधेरा छा गया। ऑफिस बंद होने के बाद वे निकले। घर तलक जाते जाते रास्ते से मधू ने टिफीन भी ले लिया था।
दूर समुंदर के तट बसे फिर फ्लैट में मधू रहता था। फ्लैट के खिड़की से समुंदर का दृश्य दिखाई देता था। समुंदर की लहरें किंतू दिखती नही थी। पुरा काला भाग ही नज़र आता था।
मधू सिर्फ अकेला ही उस फ्लैट में रहता था। मानों हरदिन उसे बोर लगता था। यह देखकर माधव बोला।
"यार तु अकेला रहता है यहाँपर?"
"हाँ, क्यो?"
"तुने शादी नही की?"
"नही।"
"क्यो?"
"मिली ही नही पढ़ते पढ़ते।"
"अभी तक कोई भी नही मिली?"
"एक मिली थी। मगर वह भी चली गई। उसके माँ बाप बिरादरी में शादी करना चाहते थे। इसलिए चली गई वह।मैने ही बोला उसे कि बिरादरी में शादी कर।"
"तुझे बोर नही लगता?"
"लगता है,मगर क्या करु अभी?हाँ,कभी देख लेता हूँ समुंदर की लहरें।देखता हूँ कि कुछ मछलियाँ कैसी उछाल लेती है। मन में शांती निर्माण होती है। पास स्थित मंदिर तथा मज्जीद से सुबह शाम आरती तथा अजान सुनाई देता है। तब भी मुझे अच्छा लगता है।"
"बाकी समय?"
"बाकी समय ऑफिस मे कट ही जाता है।"
"छुटी का दिन?"
"छुटी के दिन टिव्ही देख लेता हूँ।मोबाइल पर गाने सुनता हूँ।कभी थियेटर में चला जाता हूँ।"
"मधू तुम शादी क्यो नही करते?"
"उसका बड़ा महत्वपूर्ण कारण है।"
"कौनसा?"
"मुझे लगता है कि मेरा प्यार मुझे ना मिला। करके मै शादी न कर सका।"
"क्या उसको बिरादरीवाला अच्छा मिला होगा?"
"हाँ, मिला होगा!कौन जाने?औरतें पुराना प्यार जल्द ही भूल जाती है। आदमी लोग नही भुलते।इसलिए उनके बारे में सोचना बंद कर दिया मैने।"
खाना खाने के बाद वे दोनों बाहर टहल रहे थे।लोगों की भी देर रात तक टहलने की अंबार लगी थी। देर रात तक टहलने के बाद माधव के मन में एक प्रश्न जाग उठा।लोग सोते हैं या नही।वैसे माधव ने मधू से पुछा।
"मधू ये लोग रात में भी नही सोते क्या?"
"नही सोते।वे देर से सोते हैं और सबेरे जल्दी उठ जाते हैं।"
"यहाँ पर तो औरत जात भी टहलती नज़र आती है। मधू यह लड़कियाँ तो हाथ में हाथ पकड़कर और कुछ लड़कियाँ गले में हाथ डालकर चल रही है। इनको शर्म नही आती?"
"नही।इसमें शर्म की कोई बात नही।यहाँ पर ये आम बात है। न लड़के के माँ बाप कुछ बोलते हैं। न ही लड़की के।चाहें लड़कियाँ कितनी भी बजे घर पर जाये।"
"इसलिए तो शहर में बलत्कार मे अक्सर ज्यादा बढ़ोतरी है।"
"यहाँ पर बलात्कार आम बात है माधव।इन सबको बलत्कार से डर नही लगता।इसलिए तो ये लड़कियाँ लड़कों के साथ देख कैसी घुम रही है।"
मधू के साथ माधव घर में आया। वह बिछाने पर बैठ गया। कुछ सोच विचार करने लगा। मधू को नौकरी के बारे में कैसे पुछू? वह सोच ही रहा था कि मधू बोला।
"माधव,अब बोल कैसे क्या आना हुआ?"
हिंमत जुटाकर माधव बोला।
"मधू मुझे एक काम था तुझसे?"
"कौनसा?"
"तु चाहें तो मेरा काम कर सकता है।"
"बोल तो,मेरे बस का काम होगा,तो अवश्य करुँगा।बोल कुछ पैसे चाहिए?"
"नही पैसों का काम नही है।"
"तो फिर कौनसा काम है?"
मुझे काम है नौकरी का?चाहें तो तुम मुझे नौकरी लगाकर दे सकता है।गाँव मे कामधंदे भी बराबर नही चलते।इसलिए मैने सोचा कि मधू इतना बड़ा ऑफिसर है,तो वह मुझे शहर में काम दे सकता है।"
"कौनसा काम करेगा?मै जरुर तेरे लिए काम ढुँढकर दुँगा।वैसे तो तु कुछ पढ़ा होगा ही। तुझे तो तेरे पढ़ाईवालाही काम मिलना चाहिए। बोल कितनी क्लास पढ़ा है तु?"
"जैसी तेरी इच्छा मधू। मधू मैने अभी अभी अध्यापक की पदवी हासील की है। छोटे बच्चों को पढाना है मेरा काम।"
"तो अध्यापक बनना चाहता है।"
"हाँ हाँ,अध्यापक।अध्यापक बड़ा इमानदार होता है। अपितू मै अध्यापक ही बनना चाहता हूँ।"
"तो ठीक है। तु वह पुरे प्रमाणपत्र ला एखाद दिन।मेरे पहचान के जो कुछ लोग है,उनसे मिलवाकर बात करुँगा।ठीक है।अभी सो जा।रात काफी हो गयी है।बाकी बात कल सबेरे करेंगे।"
"ठीक है। तेरी जैसी इच्छा।तु नौकरी लगाकर देगा,तो तेरी कृपा होगी।"
"इसमे कृपा की कौनसी बात? मै भी कभी गरीब था।पता तो है न तुझे।"
"हाँ हाँ,पता है।अभी हम सोते है।"
माधव सो गया। सोने के बाद उसे सपना आया।उसे नौकरी लग गई थी। वह बच्चों को पढ़ा रहा था। प्रधानाध्यापक उसके पढ़ाने का कौतूक कर रहा था। बच्चे भी खुशी खुशी पढ़ाई कर रहे थे। पुरा गाँव उसके करतुतों से संतुष्ट था।
इतने में माधव की नींद खुल गई थी। माधव जागता हुआ गड़बड़ी से उठा।मन ही मन बोला।
'हाय ये सपना।काश!यह सपना सच हो जाये।'
उसने दिवालघडी के तरफ देखा। सुबह के चार बजे थे। उसने आँखे मुँद ली।भगवान से प्रार्थना की कि उसका सपना सच हो।फिर वह पुनः सो गया।
सुबह के सात बजे थे। मधू उठ गया था। उसने माधव को आवाज लगाया।माधव भी बिस्तर से उठकर बैठ गया। वह फ्रेश होने बाथरुम चला गया। मधू भी उसे जगाने के बाद किचन चला गया। उसने नाश्ता बनाया और गरम गरम नाश्ता माधव को देते हुए बोला।
"माधव लो गरम गरम नाश्ता कर लो।"
मधू के साथ साथ माधवने भी गरम गरम नाश्ता किया।दोनों भी डिनर टेबल पर बैठ गये।तब मधू बोला।
"माधव शर्मानाा नही।पेटभर खा।है और नाश्ता।लगेगा तो बताना।इसे अपना ही घर समज।"
"नही नही। मै क्यो शरमाऊँ?खाने के लिए मै कभी शरमाता नही।"
सुबह के साडे दस बजे थे। मधू सुबह नाश्ता ही करता था। यह उसकी रोज की आदत थी। कभी कभी तो नाश्ते पर ही दिन निकाल लेता था। वैसे उसके शहर का नाश्ता बड़ा पसंद था लोगों को।
नाश्ता होने के बाद मधू ने खाने की बात कही।मगर वह बात टालते हुए माधव बोला।
"मधू रहने दे खाना।मै अभी गाँव चलता हूँ। तुम मेरे पसंदीदा काम ढुँढना और मिलने पर मुझे याद करना।"
माधव ने मधू को फोन नंबर दिया।अतः वह गाँव के लिए निकल पड़ा।
माधव गाँव निकल जाने के बाद मधू के शहर में जो भी लोग पहचानके थे।समय मिलनेपर वह उनसे जाकर मिला। तथा माधव के बारे में बताने लगा।



माधव गाँव जाने के बाद मधू को बचपन के किस्से याद आ रहे थे। दोनों भी साथ साथ खेलते थे। माधव भी उनके साथ खेलता था।खेलने मे बड़ी मजा आता थी। गाँव में जो खेल खेलते थे। उनमें एक खेल बैलगाड़ी का भी था। वे टिन के पत्रे की गाड़ी बनाते थे। दो पहियें उस टिन को लगाते।छोटी दो लकड़ी के बैल बनाते।बैलों को बैेलगाड़ी से बाँधकर वे लोग चले जाते।उस बैलगाड़ी को चलाते चलाते कितनी मजा आती। मधू वह बचपन के बैलगाड़ी को महसूस कर रहा था।
बचपन में वह बैलगाड़ी मेें बैठा भी था। मगर आज उस बैलगाड़ी के जगह उसने चार चाकी गाड़ी खरीद ली थी। उस चार चाकी गाड़ी में उस बैलगाड़ी की मजा नही आती थी।
कुछ दिन ऐसे ही बित गये।एक दिन माधव का फोन आया।उसने जल्द ही बुलाया था।किसी पाठशाला में संचालक की मुलाकात करनी थी। अतः वह मधू से मिलने शहर में गड़बड़ी से पहूँच गया।माधव को लेकर मधू उस पाठशाला में लेकर गया। जहाँ उसको नौकरी लगानी थी।
पाठशाला,पाठशाला जैसी नही लग रही थी। उक्त पाठशाला में शौचालय नही था।पाठशाला के बच्चें शौच करने खुले झाडीयों में जाते थे। उस खुले मैदान में .......। उस पाठशाला में खेलने के लिए मैदान भी न था। कंपाऊँड भी नही था। इस पाठशाला को सरकार ने अनुमति कैसे दी?यह आश्चर्यजनक बात थी।
पाठशाला के तिनो तरफ रास्ते थे।एक मुख्य रस्ता था तथा दो सँकरी रास्ते थे। दुपहियाँ वाहन उस रास्तें से चलते थे। उन्हें तो बच्चों की फिक्र नही थी।
माधव को वह पाठशाला नही लग रही थी। किंतू अपने को नौकरी से मतलब यह विचार करते हुए वह चूपचाप रहा।
पाठशाला आते ही मधू ने अपनी गाड़ी बाजू में लगा दी और वह प्रधानाध्यापक से मिलने गया।वे दोनों गाड़ी से उतर गये। मधू ने आवेदनपत्र हाथ में लिया और वह आगे बढ़ा।माधव उसके पिछे पिछे चल रहा था।
मध्यान्ह की छुटी हो गई थी। मधू ने एक बच्चे को बुलाया।पुछा।
"प्रधानाध्यापक कहाँ बैठते है?"
बच्चे ने उँगली दिखाई और वे चले गये।मधू बोला।
"साहाब नमस्ते।"
"नमस्ते,बोलो,बोलो क्या काम है?"
"मै मधू।" मधू ने खुदका परीचय दिया।बाद मे माधव का परीचय दिया और बोला।
"प्रधानाध्यापक जी,यह कागज है माधवजी के पढ़ाई के।आपके यहाँ कोई जगह होगी तो बताओ।इन्हे नौकरी की सख्त जरुरत है? मै आपके पाठशाला के मालक से मिलकर आया हूँ।"
माधव सोच में पड़ गया था। उसे लग रहा था कि इस कीचड़ भरे पाठशाला में नौकरी ना मिली तो अच्छा है। क्योंकि उसने उस पाठशाला कीर स्थिति जान ली थी। उक्त प्रधानाध्यापक धुल से भरी खुर्ची पर बैठ गया तथा हाथ न धोकर मैले हाथ से ही पानी भी पिया।प्रधानाध्यापक ही गँदा तो बच्चों का क्या?इस पाठशाला में स्वच्छता का महत्व कैसे पढ़ाये?फिर भी मधू को बुरा लगेगा हेतू वह चूप रहा।
प्रधानाध्यापक ने कागज देखे।वह प्रधानाध्यापक है यह भी नही लग रहा था। किंतू डिग्री के तथा संचालक रिश्तेदार होने से वह प्रधानाध्यापक बना था।वैसे वह बोला।
"ठीक है। मैने कागज देखे है।वैसे मेरे पाठशाला में जगह तो नही।लेकिन आप संचालक महोदय के पहचान के है।इसलिए मै इनको रखता हूँ। लेकिन....।"
"लेकिन क्या बात है जी?"
"हमारी पाठशाला गरीब है।अपितु आपके तरफ से पाठशाला को कोई मदत होगी तो ठीक ही होगा।"
"कितनी आर्थिक मद्द चाहिए?"
"यही कोई दस लाख रुपये।"
"दस लाख रुपये!" मधू ने आश्चर्य के भाव दिखाते हुए कहाँ।
"देखो,लेनदेन की भाषा सभी पाठशाला में होती ही है। लोग तो बीस बीस लाख रुपये लेते है। मै वह तो नही कह रहा।हमारी पाठशाला गरीब है,अपितू इतने कम पैसे बोला मैने।"
"अगर ये आपकी माँग पुरी नही की तो.....।"
"आप नही देंगे,तो कोई दुसरा देगा। नौकरी की सभी लोगों को जरुरत है।"
"लेकिन यह तो भ्रष्टाचार है?"
"किंतू आपके भी कार्यालय में इससे ज्यादा पैसा माँगते हैं।"
"हमारा माधव गरीब है जी।ये बेचारा इतना पैसा नही दे सकता जी।"
"लेकिन हम क्या करे?"
"क्या इस पैसे में कोई उपाय नही है?"
"हाँ,है न।एक उपाय है।"
"कौनसा? जल्दी बताओ।"
"फिर कुछ साल तक फोकट में नौकरी करनी पडेंगी। हम पैसा नही देंगे और कुछ लेंगे भी नही।अगर मंजूर हो तो कल से ही काम पर आओ।बाकी आपकी मर्जी।"
"ऐसा कब तक चलेगा।"
"जब तक सरकार का अनुदान नही मिलता और आपके पैसे वसूल नही होते। तब तक चलेगा यह कार्यक्रम।"
"ठीक है। इसपर हम विचार करेंगे।जब हमारा विचार पुरा होगा। तब आपको बतीयेंगे।ठीक है,अभी हम चलते हैं।"
"ठीक है। आप जब आना चाहे आ सकते हो। मगर ज्यादा देर मत करना। नही तो यह जगह भर दी जायेगी। बाद मे पछताते रहोंगे।"
"ठीक है। जैसा आप बोलते हो।वैसा ही करेंगे।"
मधू ने पुरा विचार करके उस पाठशाला से निकला।उस दिन पुरी पाठशाला घुमे वे।मगर सभी पाठशाला में पैसे का ही खेल चल रहा था। इतना पैसा माधव के पास नही था। अतः वह चूपचाप था।
शाम को वे दोनो जब घर पर आये।तब मधू ने माधव कितना पैसा भर सकता है। इसका जायजा लिया।तब माधव ने कहाँ।
"क्या जमाना आया मधू?इस जमाने मे हमारे अंगं के गुण की कोई कदर नही।कदर है सिर्फ पैसों की।"
"हाँ, अभी तूने देखा ही होगा। हम पैसो से सबकुछ पा सकते है। गरीबी की कोई कीमत नही है यहाँपर।वह चाहे इमानदार क्यो न हो।यह पैसा सबकुछ दे सकता है। बिबी,बच्चे,घरदार,गाड़ी बंगला आदि सबकुछ। सिर्फ एक बात नही दे सकता,वह है माँ बाप।मुझे सब मिला।लेकिन आज भी जब मुझे माँ बाप की याद आती है। तो मै रह नही पाता हूँ।"
"हाँ मधू,इसलिए तो अमीर,अमीर बनते जा रहा है और गरीब गरीब बनते जा रहा है।अगर ऐसा है तो गरीब लोग नौकरीयाँ ही नही पा सकते।इसलिए पढ़ने की तो कोई जरुरत नही।"
"हाँ माधव,सभी पढेंगे,तो मजदूर कौन बनेगा?मजदूर का काम कौन करेगा? देश का विकास कौन करेगा?मजदूर है,अपितू देश का विकास है। अगर मजदूर नही रहते,तो देश का विकास भी नही होता।ये रास्ते कोई पढ़ा लिखा इन्सान नही बनाता।गरीब मजदूर ही बनाते है। अगर हम ऑफिसर को भी मजदूर ना मिलेंगे,तो हम भी अपना काम सफाई से नही कर सकते।इसलिए सरकार भी यही चाहती है।"
"फिर गरीब के घर गुणवान पैदा हुआ तो,उसके गुण का कोई मतलब ही नही।"
"हाँ माधव।"
"तो हम नौकरी पर नही लग सकते?"
''इसका मतलब यही है माधव।अगर तेरे पास पैसा है तो,तु अध्यापक की नौकरी कर सकता है। है तेरे पास उतने पैसे?"
"नही मधू,मेरे पास उतने पैसे कहाँ?अगर होते तो,मै तेरे पास क्यो आता?"
मधू के जरीये वार्तालाप करके माधव पाठशाला मे लग गया। उसके शुरुआती दिनों में वह खुश था काफी।उसे लग रहा था कि वह जल्द ही वेतन कमा पायेगा।उस आशासे वह प्रधानाध्यापक के बड़े बड़े काम करने लगा था। अब उसकी बिबी के कमाई पर माधव पुरी तरह निर्भर रहने लगा। कभी कभी वह भी काम पर जाता।परंतु कभी कभी काम करने की इच्छा नही होती थी। क्योंकि वह पाठशाला से ही थककर आता था।
मधू नौकरी शहर में करता था। मगर उसको रहने के लिए तथा खाने के लिए वेतन न मिलने की वजह से वह अपने ही गाँव में रहता था। अतः वहाँ से वह साइकिल से पाठशाला जाता था। रास्ता बड़ा कठिन था। आती जाती बड़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। वह नौकरी से काफी तंग आ चुँका था। उस नौकरी को छोड़ने की इच्छा हो रही थी। मगर नौकरी अगर बिचमें छोड़ा,तब मधू क्या कहेगा? ऐसा उसे लग रहा था।
माधव के बच्चे भी बड़े हो रहे थे। उन बच्चों का खर्चा भी बढ़ रहा था। औरत भी बोलती रहती थी। दिन ब दिन हालत घसर रही थी। बड़ी दिक्कतों का सामना.....।आज उसके पास कोई चारा ही नही था। अतः कोई उपाय भी नही चल रहा था।
रास्ता भी उतना चौड़ा न था। उस रास्ते से साईकिल चलाना मुश्किल था। कोई ट्रकवाले पाठशाला जाते समय कभी थंडा थंडा पानी तो कभी गरम गरम पानी डाल देते थे।कभी तो लकड़ी से मार देते थे पीठ पर।बड़ी जान तिलमिला होती थी। कभी तो बड़ा लकड़ा भी डाल देते थे। इस बर्फीले पानी से ठंड के दिन बड़ी तकलिफ होती थी। ट्रक से ज्यादा बसवाले ज्यादा परेशान करते थे। बसवाले तो एकदम पास में ही आकर भोपू बजाते थे। अतः उस बस से डरा हुआ माधव कुछ समय के लिए घबरा जाता था। अतः वह साइकिल नीचे ले लेता था।
नीचे का रास्ता भी सही नही था। वहाँपर वाहन के चलते रेत जमा होती थी। उस रेत में साइकिल फिसल जाती थी। अतः वहाँपर भी गिरने का डर था।तथा कभी कभी साइकिल नीचे लेते हुए गड्डे में जाकर गिरने का भी तथा साइकिल का चिमटा तुटने का डर था।
माधव को हरपल डर लगा रहता था कि कभी एखाददिन वह ऐसे ही चलता रहा तो मर जाएगा। परंतु जो नसीब में लिखा है,वही होगा।सोचकर माधव अपनी ड्युटी करता था।
माधव एक दिन जैसे ही निकला। माधव को सड़क पर तीन लाशें दिखी।ट्रैकर से शायद अपघात हुआ था। माधव को उस दिन इतना डर लग रहा था कि पुछो मत।क्योंकि आगे जाने पर एक लाश के टुकड़े भी नज़र आये थे। गौर से देखने पर माधव को सिर्फ आदमी की अँगुली दिखी।उससे पता चला था कि वह आदमी की ही लाश होगी। बाकी पुरी शरीर कुत्ते के शरीर के जैसे शिरखुरमा बन गया था। अब तो माधव बड़ा ही घबराने लगा।मानों इस रास्ते से आना जाना खतरों से खेलने जैसा है। इसलिए वह रास्ता बदलने की कोशिश करने लगा।
माधव के गाँव में दुसरा भी रास्ता जाता था। वह रास्ता अच्छा था।परंतु थोड़ा लंबा था।मगर ना उस रास्ते से ट्रैक चलते थे। ना ही कोई बस का डर था।अब तो माधव अभी नये रास्ते से जाने लगा था।
पाठशाला में संचालक तथा प्रधानाध्यापक झगड़े करते रहते थे। वह एक नाटक ही था। अतः अध्यापक को लगे कि उनके झगड़े की वजह से अपना काम नही होगा। अपितु अभी पाठशाला छोड़ दे।संचालक ने पाठशाला खोली थी धन कमाने।मगर प्रधानाध्यापक उसमे कुछ टक्के रक्कम माँगता था।प्रधानाध्यापक को लगता था कि उसने मेहनत की।अतः पाठशाला इतनी बढ़ी।परंतु संचालक से पैसा न मिलने पर उन्हें न बताकर प्रधानाध्यापक भी पाठशाला को लुटने लगा।वह भी बच्चों की फिस,पाठशाला के बच्चों के किताब की रद्दी तथा पाठशाला के सर्टीफिकेट बेच बेचकर पैसा कमाया करता था।उसी झगड़े के तहत माधव के साथ साथ बाकी अध्यापकों के काम नही होते थे।
कुछ दिन ऐसे ही बित गये। माधव हताश हो गया। माधव को पहले ही अच्छा था ऐसे लगने लगा।मगर मजबूरी थी उसकी।कभी कभी जब वह एकांत रहता।तब तब वह एकांत मे ही रोता रहता था।


मधू के दिन बितते गये।भ्रष्टाचार से उसने काफी धन इकट्ठा किया था।उसे लगता की आज पैसो से ही बड़े बड़े काम होते है। अपितु वह सच्चाई छोड़कर पाप ही पाप करता गया। एक दिन अचानक उसे बहनों की याद आई। लगा की लोगों ने बताई सच्चाई वासत्विकता है।या इसमें जरूर कोई झुठलापन है। यही बात की पुष्टि करने वह बहन के यहाँ जाने पर विवश हो गया।
मधू के मन में बहन को मिलने की खुशी जनम ले रही थी। अपनी बहन कैसी होगी? वह उसे याद करती होगी या नही? वह पहचान पायेगी या नही? उसके बुवा स्वागत करेंगे या नही? आदि प्रश्न तभी उसके दिमाग में चल रहे थे। उसके उत्तर उसके पास न थे।
मधू जब गाँव गया था। तब माँ बाप ने नंदीनी का पता उसे दिया था। उसने अपने डायरी में नंदीनी का पता ढूँढा।
डायरी दिख नही रही थी। परंतु पुरा घर छान मारनेपर दूर एक कोने में मैली पड़ी हुई वह डायरी मिली। वह डायरी के पास गया। डायरी उठाकर उसके पन्ने पलटने लगा।कुछ पन्ने पलटने के बाद एक कागज पर लिखा पता मिला। वह पत्ता ढुँधले से अक्षर....मधू ने वह पता दुसरे कागज पर लिखा।तथा वह गाँव जाने का सामान भरने लगा।
सुबह काफी हो गई थी। दुसरा दिन निकल आया था। जल्द जल्द में मधू ने तैयारी की।तथा वह बहन से मिलने निकल पड़ा। पूछते पूछते वह गाँव जाने लगा।जाते जाते रास्ते में जंगल लगा।जंगल से गाड़ी निकालते वक्त मधू को डर लग रहा था कि कोई जंगली प्राणी उसपर हमला न करे। बड़ी ही सावधानी से वह गाड़ी चला रहा था। कुछ देर बाद उस घने जंगल स्थित वहगाँव में पहूँचा।पुछने पर पता चला कि वही गाँव उसके बहन का है। गाँव मे पुछते पुछते मधू बहन के घर पहूँचा।
घर में ताला लगा था। घर में कोई भी न था। पुछने पर पता चला कि घर के लोग खेत में गए थे। खेत नज़दीक ही था। बच्चे पाठशाला गए थे।
पाठशाला का नाम आते ही उसे माधव की याद आई। माधव कैसे होगा? किस हालत में होगा?यह बात उसे सताने लगी थी।
घर में कोई ना होने से मधू अपने गाड़ी में ही समय बिताने लगा।इतने में शाम हुई।अब पाठशाला के बच्चे तथा खेत में गई हुई महिला भी काम से वापिस आ रही थी। कुछ गाय,भैस और बकरियाँ भी गाँव मे आ रही थी। मधू अपने गाड़ी में ही बैठा रहा अपने बहन की राह देखते हुए।कुछ देर के बाद दिख
जीजा और बहन आई।
मधू उनके पास गया। बोला।
"आप नंदीनी हो?"
"हाँ, तुम?"
"मै मधू।"
"कौन मधू?"
मधू ने गाँव का नाम बताया।पिता का तथा माता का नाम बताया।जैसे ही मधू ने पहचान बताई। नंदीनी ने पहचान लिया।वैसे देखा जाये,तो शादी होने के बाद नंदीनी का ससुराल वालो ने नाम बदल लिया था।
"तो तु है मधू।" नंदीनी ने कहाँ।
"हाँ,मै मधू हूँ।"
"क्या अभीतक तुझे याद नही आई हमारी?"
"आई थी। लेकिन मुझे तो तेरा पता ही मालुम न था।"
"लगता है कि तु बहोत बड़ा हो गया। ये गाडी क्या तेरी ही है?"
"हाँ,ये गाड़ी मेरी ही है।"
"नौकरी लगी क्या नही?"
"लगी है। मै ऑफिसर बन गया हूँ।"
"कौन है नंदीनी?" जीजा ने नंदीनी से पुछा।
"मधू.......मेरा भाई........सगा भाई है ये।"
"किंतू तुने तो बोला था कि तेरा कोई भाई नही है।"
"हाँ हाँ,बोला था।"
"क्यो बोला था?"
"हम अनपढ़ गँवार ठहरें।हमारा भाई पढ़ा लिखा।हमे लगता था कि हमारी छाया भी हमारे भाई पर ना पड़े। वह बहोत पढ़े।बड़ा आदमी बने।"
वार्तालाप करते करते मधू ने वही जीजू होगे इसका अनुमान लगाया।तथा प्रणाम कहाँ।
"प्रणाम जीजू।"
"प्रणाम,किंतू अभीतक कहाँ गए थे?"
"मुझे तो आपका पता ही मालुम न था।"
"फिर किसने दिया?"
"पता मेरी माँ ने ही दिया था। तब मै बहोत ही छोटा था।अभी मिल नही रहा था। परंतु कुछ कागज ढुँढते हुए मिल गया।सोचा, अभी मुलाखात ले लूँ।"
"अब क्या आप बाते ही करते रहोगे या अंदर आओगे।"
"आप बुलायेंगे तो जरुर ही आएँगे।" वे हँसने लगे।
"मधू,चल अंदर,बाद में बहोत सारी बातें करते हैं।"
नंदीनी मधू से बड़ी थी।उसने मधू को पैर धोने पानी दिया।मधू ने पैर धोये।अतः वह अंदर आ गया।
नंदीनी का घर छोटा सा था। अंदर जाने के लिए नीचे झुककर जाना पड़ता था। उसके घर के छत पर घाँस डाली हुई थी। उसके घर में बहोत सारी गय्या थी। वे लोग गय्या बाहर ही बाँधते थे। मगर वे गय्या की भी सुरक्षा जानते थे। गय्या बाँधते वक्त काँटों का कटघरा था।उस कटघरे में गय्या जंगली जानवरों के हमले से सुरक्षीत रहती थी।कब कोई जंगली जानवर हमला न कर दे इसका कोई नेम न था। क्योंकि जंगल पास में ही था। अतः गाँव जंगल मे ही बसा हुआ था।
शहर जैसे गाँव में बड़े उँचे मकान न थे। पुरे गाँव के बहोत से मकान पर घाँस डाली थी। एक दो मकान के छत पर कवेलूँ थे।
मधू अंदर आया।अंदर पड़ी खटियों पर मधू बैठ गया। नंदीनी को दो बेटे थे। उनका नाम कुछ और ही था। मगर उनको प्यार से चीनू और मीनू बोलते थे। चीनू ने पानी लाया।मधू ने पानी पिया और वह नंदीनी से बातें करने लगा।
"दिदी,मै आपके आशिर्वाद से बडा आदमी बन गया। लेकिन मुझे अफसोस है कि पिताजी ने आपके शादी में मुझे बुलाया क्यो नही होगा?यह आज भी पता नही चल रहा है।"
"वह तो पिताजी की मजबूरी थी।"
"ऐसी कौनसी मजबूरी थी कि पिताजी ने मुझे बुलाया नही।"
"हाँ हाँ, मुझे भी अभी वही प्रश्न पड़ा है।" जीजा बोले।
"देखो,हमारी शादी जब हुई। तब मधू दसवी में था।उस समय दसवी को ही बड़ी परीक्षा मानते थे। दसवी को बड़ा महत्व था। अगर इसे शादी में बुलाते मेरे पिताजी तो इसके पंद्रह दिन खराब होते।नापास होने का भी डर था। मधू को पढ़ाई मे बाधा ना आये।अपितु इसे हमारे शादी में बुलाया नही।"
"लेकिन मुझे एक बात समज मे नही आ रही कि दुनिया में ऐसे कौनसे माँ बाप है,जो अपने सगे लड़के को अपनी सगी लड़की के शादी में नही बुलाते। कितना नुकसान होता,शादी में बुलाते तो।"
"नही नही। उस वक्त तेरे पेपर भी सुरु होनेवाले थे पता है तुझको।"
"तो ऐसे समय मे शादी ही क्यो निकाली?"
"तु क्या जानेगा उन माँ बाप की महानता? हमारे मातापिता बाकी लोगों के मातापिता जैसे नही।पता है तुझे,अपने पिता कितने होशियार थे अपने बचपन में।परंतु उनके पिताजी ने पैसों के कारण वे होशियार होने के बावजूद भी नही पढाया। अपितु पिताजी ने कसम खाई कि वे कुछ भी करेंगे। लेकिन बच्चों को पढायेंगे।परंतु गाँव में पाठशाला चौथी तक ही होने के वजह से वे हताश हुए और हम लड़कियों को नही पढ़ाया।परंतु तु तो लड़का था और हमने भी पिताजी को हौसला दिया तेरे पढ़ाई के लिए। ताँकि तु पढ़ाई पढ़ सके।"
"तु क्यो नही पढ़ सकी?" जीजा बोले।
"हम ठहरी लड़कियाँ।बाहरगाँव जाते वक्त इज्जत का भी सवाल था। आजकल दुनिया खराब थी।हम इज्जत देखते थे।आजकल तो बलत्कार,छेड़छाड़, अपहरण ये सारी चीज़ आम हो गई है। लड़कियों का बाहर निकलना मुश्किल है। हमारे गाँव में तो साहूँकार का डर था। कब चाहे वे गुंडे भिजवाकर छेड़ सकें। इसलिए तो हमारी शादी भी जल्दी की पिताजी ने।वैसे तो हमारे पास पैसा भी कम था। इसलिए हम बहनें नही पढ़ सके। किंतू.......।"
"किंतू.........।"
"किंतू हमारे पिताजी कहते थे कि उनकी इच्छा होने पर भी उनके पिताजी ने उन्हें पढाया नही।वे जरुर पढायेंगे अपने किसी एक बच्चे को।चाहे उसके लिए खुद को भी बेचना क्यो न पड़े।"
"और हम तुम्हें पाने हेतु तुम्हारे पिताजी को बहोत सारा धन दिया।तुम्हारे पिताजी कहते थे कि उनकी शादी करने की ताकद नही।तुम्हारे पिताजी मुखर न जाये। इसलिए पुरे गाँव को साक्षी रखकर हम बहोत सारा पैसा तुम्हारे पिताजी को दिये।क्योंकि तु मुझे पसंद थी।" जीजाजी बोले।
"इसलिए गाँववाले कहते है कि तुम्हारे माँ बाप ने बहनों को बेच दिया।" मधू बोला।
"नही रे मधू।।बेचा नही।हम खुद अपने मर्जी से तुम्हारे पिताजी की मदत करने पैसे दिये है।इसमे हमारा भी तो स्वार्थ था।हमे तुम्हारे बहन से शादी जो करनी थी। तुम्हारे पिताजी की शादी करने की हालत न थी। वे कर्ज में डुबे थे। यह बात तुझे पता न चले,अपितु तुझे शादी मे नही बुलाया होगा ये भी तो कारण हो सकता है।ब्याह होने के बाद पता चला कि नंदीनी की इच्छा उनके भाई को पढ़ाने की है। हमें वह बात अच्छी लगी और हमने सोचा कि यह अच्छी बात है। हम नही पढे लेकिन हमारे साले साहाब तो पढ़ रहे।आगे चलकर कुछ हमारे काम तो आएँगे। नही हमारे तो हमारे बच्चों के तो काम आएँगे।इसी वास्ते जब भी तुम्हारे पिताजी आते।हम उनको हमारे पास का थोडासा धन तुम्हारे पढ़ाई मे मदत हेतू दे देते।"
"अर्थात मेरे पढ़ाई में आपका भी दायित्व है कुछ।मुझे तो लगता था कि मेरे बहनों को पिताजी ने बेच दिया। सच्चाई अलग ही है।अब मेरी गलती मुझे समज मे आई। आप कितने समजदार है जीजू।ऐसे जीजू नसीबवालों को मिलते हैं। मै बड़ा ही भाग्यशाली हूँ कि मुझे आप जैसे जीजू मिले।"
"हाँ, अब तो तेरे समज में आई न उलझन।आज तु बड़ा हुआ।मगर हमें नही पता था।"
देर रात तक बातें चलती रही।रात होने के कारण बातचीत बंद हुई। बात करते करते खाना कब हुआ यह भी उन्हें पता नही चला था।
खाना हो गया था। बहन के घर में खटियाँ थी। उस खटियाँ पर जीजा सोते होगे।मधू को पलंग की आदत थी।मगर आज वह खटियाँ मधू को सोने के लिए मिली थी।
मधू खटियाँ मेंं सो रहा था। उसे आदत ना होने से नींद भी जल्द आ नही रही थी। मच्छर तो बुरी तरह काँट रहे थे। अपने आवाज से वे मधू की नींद खराब कर रहे थे।
धूपकाला था। चादर मुँह पर ओढी जाये,तो गर्मी ज्यादा परेशान करती थी। क्या किया जाए।अपन तो मेहमान है। सब सहन करना ही पड़ेगा। इस हेतू से मधू चूपचाप था। वैसे भी तो उसपर जीजा का एहसान ही था।
वह रातभर सुबह का इंतजार करता रहा।सुबह हुई थी। गाँव के लोग जल्दी ही उठे थे। मगर मच्छरों के कारण मधू देर से सोया था। अतः वह अभी उठने का था।
मधू सोकर उठा।जीजू के घर में शौचालय नही था। अपितु प्रातःविधी के लिए वह बाहर गया।जहाँ लोग जा रहे थे। वहाँ पर जंगली प्राणियों का भी डर था। फिर भी लोगों ने शौचालय नही बाँधे थे। वे तो खुले शौच मे जाते थे। मधू ने शौच के बाद स्नान किया।खाना खाया।अतः वह जीजा के साथ उनके खेत चला गया।
खेत मे फसल दाने पर थी। चमकिली पट्टी चारो ओर बिखरी थी। तथा काँटे का कटघरा भी था।मधू को आश्चर्य हुआ और मधू बोला।
"जीजा ये क्यो लगाते हो?"
"पंछियों ने फसल नही खानी चाहिए।तथा सुअर और नीलगय्या नही आनी चाहिए।"
"सुअर तो गाँव में होते है।"
"वे सुअर नही।यहाँ पर बड़े बड़े जंगली सुअर है। जो खेत को उखाड़ फेंकने की कोशिश करते हैं।"
"जीजा,ये मडके वाला क्या है?"
"ये पुतला है आदमी का।हम ऐसा ही पुतला बनाते है आदमीयोंका।कोई जानवर को लगे कि इन्सान खेत में है। अपितु ऐसा पुतला लगाना पड़ता है हमे।"
"जीजा,ये उपर में क्या है?बिछाना है क्या?"
"हाँ हाँ, यह बिछाना ही है।"
"इतने उपर।क्यो ऐसा?"
"कोई जंगली जानवर आया भी समीप।तो उसने हमला नही करना चाहिए। इस हेतू से यह बिछाना ज़मीन से कुछ कुछ दुरी पर बनाना पड़ता है।"
"अर्थात किसान पढ़ा लिखा न होने के बाबजूद बराबर दिमाग लगाता है। ताँकि फसल अच्छी हो।इसलिए ही किसान को भगवान कहाँ जाता है। किसान खुद दुःख भोगता है। अतः दुसरों को सुख देता है।"
"हाँ मधू,कभी कीड़े मकौडे की मुसीबत,तो कभी पानी नही आता। बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। तब फसल हाथ में आती है।"
"लेकिन कितना क्लेशदायक है किसानों का जीवनयापन।"
"हाँ हाँ,हमारा जीवन कुछ ऐसा ही है।"
कुछ देर बात चलती रही। कुछ देर बाद खेत मे नंदीनी खाना लेकर आई। मधू तथा अपने पती को आवाज लगाई।वे आये।फिर क्या था उन्होने वनभोजन का स्वाद लिया।खेत में खाना खाते समय मधू को बड़ा आनंद आ रहा था। क्योंकि खाने में बाजरें की रोटी और टमाटर की चटनी थी।
मधू खाते खाते भी कुछ न कुछ पुछने लगा।जो बात उसे नई दिखती वह पुछते रहता।वैसे वह बोला।
"दिदी बारीश में तो तुम्हें बहोत परेशानी होती होगी।"
"हाँ,होती है।तुझे नही होती परेशानी ऑफिस में।"
"होती है। मुझे भी बारिश में परेशानी होती है। लगता है मेरे जीजा को हरदिन खेत में आना ही पड़ता होगा। हमारे तो सरपर छत रहता है। मगर आप खुले आसमान में।लगता है किसान के अच्छे दिन कब आएँगे।"
"तु कर सकता है कुछ?कैसे आएँगे अच्छे दिन? क्या तु बारिश ला सकता है? क्या आनेवाली बरसात खत्म कर सकता है? यहाँ सुका अकाल गिला अकाल पड़ता है। जानता है अकाल किसे कहते है?"
"हाँ,जानता हूँ। मगर यहाँपर तो मै कुछ नही कर सकता।"
"दिदी ये बात छोड़ो और बताओ।क्या तुम गौरी के यहाँ नही जाती?"
"जाती हूँ।"
"मेरे जाते समय मुझे उसका पता देना।जानकारी भी देना।"
"क्या तु गौरी के घर जाना चाहता है?"
"हाँ हाँ,क्यो न जाऊँ?"
"कैसी होगी गौरी?किस हालत में होगी?'
"मतलब?" मधू बोला।
"अरे गौरी की शादी उलट शादी थी।"
"मतलब?मै कुछ समजा नही।"
"अरे गौरी का आदमी उससे करीब करीब पैतीस साल बड़ा था।"
"पता है।"
"कैसे पता चला?"
"गाँववालो ने ही बताया था बहोत दिन पहले।परंतु पिताजी ने गौरी की ऐसी शादी क्यो की होगी?"
"जीजाजी बहोत धनवान थे न।अपने को पैसे भी चाहिए थे तेरे पढ़ाई के वास्ते।"
"क्या दिदी,पैसा....... पैसा...... पैसा।इस पैसे ने तो कितने रिश्ते नाते तोड़ दिये पता है।क्या उन्होने भी मेरे पढ़ाई में योगदान दिया?"
"हाँ हाँ,उनका भी है। इतना ही नही संजू का भी है।"
"इतना पैसा लगा मेरे पढ़ाई को?"
"हाँ,पढ़ाई को बहोत खर्चा आया।हमें पता भी नही चला।उन्होंनेही तो तेरे कॉलेज की फी भी भरी।"
"दिदी,मै कितना अभागा हूँ कि यह बात मुझे पता तक नही।"
"क्यो अपने आपको अभागा समजता है?"
"यह कि वे जीजाजी कैसे दिखते होगे?"
"दिदी,तुमने पढाया,बहोत कुछ किया और एक बार भी मुझे मिलने की कोशिश नही की।"
"हमने सोचा कि अगर तुम्हें मिले तो तुम्हारा ध्यान पढ़ाई से मुकर जाएगा।"
''पढाई खत्म होने के बाद भी न मिले।"
"हुआ यू कि उस वक्त माताजी और पिताजी गुजर गये थे।"
"फिर पिताजी के मैय्यत को गई थी क्या तु?'
"हाँ हाँ,गई थी। मैने ही मैय्यत का खर्चा उठाया।साहूँकार के कर्ज से मुक्ती मिली उनको।"
"मैने सुना वे साहूँकार के यहाँ ही मरे।उन्होंने ही सारा मैय्यत का खर्चा उठाया।"
"गलत है।हाँ,इतना सही है कि साहूँकार ने बूढ़े वक्त माँ बाप की सेवा जरुर की।"
"पिताजी साहूँकार के यहाँ किस वजह से गये?"
"कर्ज के चलते साहूँकार ने माँ बाप का मकान दबोच लिया।मगर कुछ उनके भी दिल में दया जागी और ले गये आखिर वक्त।वे वहाँपर ही खाते।वहाँपर ही रहते।एकदिन जब वे मेरे पास आये और बोले,'बेटा नंदीनी,मै अभी बूढ़ा हो गया हूँ। साहूँकार के यहाँ ही रहता हूँ। अब मुझे पैसा नही मिलता। हम बुढ़ापे के दिन कैसे गुजार रहे,वह हमें ही पता।तो अब दामाद जी से कहकर मधू के पढ़ाई पर ध्यान देना तुम्हारा कर्तव्य है।अगर तु ध्यान नही देगी,तो मधू की सारी पढ़ाई मिट्टी में मिल जायेगी।' इसलिए तेरे पढ़ाई को मै खर्चा लगाती चली गई।"
"और तेरे बहना ने मुझे बताने पर मुझे भी वह बात अच्छी लगी।जब भी पिताजी आते।पैसों का विषय निकालते।तब तब मै पैसे देते गया। परंतु मै थोड़े ही पैसे दे पाता। क्योंकि हमारी उतनी कमाई नही थी। एक दिन जब तु कॉलेज में गया था। उस दिन जब आये।तब माँगा हुआ उतना पैसा मेरे पास न था। तो मैने ही वह पैसा गौरी को माँगने की सलाह दी।मै तुम्हारे पिताजी अर्थात ससूरजी के साथ गौरी के घर गया। गौरी के आदमी को यह बात बताई। मै भी कितनी मद्द करता हूँ यह भी बताया।तो वे राजी हो गए। बोले,'आगे के खर्चे मै देख लुँगा।अब आपको अधिक खर्चा उठाने की जरुरत नही।' ऐसे कहकर मेरे सामने ही उतनी धनराशी का चेक ससूरजी को दिया।दिलदार आदमी है वह।" जीजा ने कहाँ।
बाजरे की रोटी खाकर हुई थी। वैसे जीजा उँचे बाँधे हुए उस मकान पर चढ़े।सुरज मध्यम भाग में आया था। दोपहर पार हो गई थी। वैसे मधू तथा नंदीनी भी उस मकान पर चढ़े। धूप तथा जंगली प्राणियों से बचने के लिए साधा सरल उपाय।कितना अच्छा लग रहा था। नरम गद्दी जैसे।
उस मचान में मधू को नींद आ रही थी। रात में वह बराबर सोया ही नही था। वैसे जीजाजी ने उसे सोने की सलाह दी। मधू भी गहरा नींद में सो गया। नींद में वह गौरी के घर का सपना देखने लगा। बाजू में बड़े बड़े पर्वत उस पर्वत के बीच से रास्ता निकलता हुआ पर्वत को चीरकर जाता हुआ रास्ता।रास्ते में वाहनों की आवागमन और मधू के गाड़ी को अचानक अपघात हो गया। सपना ही सही।सपने में मधू ने अपना ही एक्सेडंट देखा था।
जैसे ही मधू ने अपना अपघात देखा।मधू घबराकर जाग उठा और मनमेंही कहने लगा,' "साला अपघात,मेरा ही.....मैने क्या किया है?'
मधू आसपडोस देखने लगा। आसपडोस कोई न था। जीजा और बहन खेत में काम कर रहे थे। मधू उठा व उस मकान से उतरा और सीधा जीजा के पास जा पहूँचा। वैसे जीजाजी बोले।
"नींद हुई मधूजी।"
"हाँ, नींद हुई।"
"जीजा एक सवाल पुछू?"
"हाँ हाँ, पुछ, क्या पुछना है?"
"ये आप चला रहे,ये क्या है?"
"हल। इसे हल कहते है।"
"कैसे चला लेते हो?"
"तुम्हारी गाड़ी की तरह।"
"मै शिखने की कोशिश करु?"
"नही जमेगा तुम्हें।तुम बैल के पैर ही तोड़ डालोगे।ये दिखता है, उतना आसान नही है।ये तो चला पायेगा।मगर जो नई जोडीयाँ होती है। वह नही चला सकते तुम।ये भी तो नही चला सकोगे।।"
दिन ढलते आया था। शाम हो गई थी। वैसे ये दिन कैसे कट गया मधू को पता ही नही चला था।ऐसे मे आठ दिन निकल गये।एक दिन फिर एक शाम समय उसे याद आया कि वह छुटी लेकर तो आया।किंतू ड्युटी पर लोग उसके ना रहने से काफी परेशान होते होगे।इसलिए आज उसने बहन से कहाँ।
"दिदी आज आठ दिन हो गए। मै कल निकल जाऊँगा।"
"फिर कब आयेगा?"
"यही जब मुझे याद आई कि आऊँगा।"
"ठीक है।"
"अभी मै एखाद दिन गौरी के यहाँ जाऊँगा। उसका पता दे।"
नंदीनी ने पता दिया।रात में जीजा ने अच्छी खातीरदारी की।तथा दुसरे दिन सुबह वह अपने शहर की तरफ चल पड़ा।


दिन ब दिन मसगत के बाद भी माधव को लाभ नही हो रहा था। तो माधव ने मधू की मुलाकात लेनी चाही। उसे लगा कि प्रधानाध्यापक के बारे मे तथा पाठशाला की परेशानी के बारे में मधू को बताना आवश्यक है। मधू ही कुछ इसपर हल निकाल सकता है। फिर एक दिन समय निकालकर माधव मधू से मिलने निकल पड़ा। मधू उस समय ड्युटी पर ही था।
"बोल माधव,कैसे क्या आना हुआ?बहोत दिनों के बाद आये हो?तु तो मुझे भूल ही गया नौकरी लगी तो?"
"नही मधू,तुझे क्यो भुलूँगा भला।तुनेही तो नौकरी लगाकर दी है।"
"क्या माधव तु भुलता है और बताता है।फिर क्यो नही आया आज तक?कितनी तनख्वाह मिलती है अभी?"
"मधू कैसे बताऊँ तुझे?"
"क्यो? मै क्या ले लुँगा तुझसे?मत बता।मै लेनेवाला हूँ।" वह हँसते हुए बोला।
"मधू,न मुझे तनख्वाह मिलती है। ना ही मुझे जाब मिला है।"
"मतलब?"
"मतलब,मुझे उस संचालक ने परमनंट ही नही किया।"
"क्यो?"
"मालुम नही।हरबार मिलने पर आश्वासन ही देते रहते हैं।"
"अरे ये तो बड़ी गड़बड़ हुई।मगर आजतक तु चूप क्यो रहा?मुझे क्यो नही बताया?"
"मुझे तो कुछ समज में ही नही आ रहा।क्या किया जाये ये भी पता नही चल रहा।"
"क्या कुछ भी वेतन नही देता संचालक?"
"नही।"
"तो बता मै क्या कर सकता हूँ तेरे लिए अभी?"
"मधू एकबार तु मिल ले उनसे?बोलके देख,क्या कहते है।"
"ठीक है। कल ही चलते है नही तो आज शाम।ठीक है।"
"हाँ, ठीक है।"
"और हाँ,हम तेरे प्रधानाध्यापक से भी मिलेंगे।"
शाम हुई थी। मधू आज जल्द से ऑफिस से निकला।शाम को दप्तर से जल्दबाजी में मधू ने छुटी ली थी। अतः आज वे दोनो प्रधानाध्यापक से मिलने उनके घर पर पहूँचे।जो पता माधव ने बताया था।
जैसे ही वे गाड़ी से उतरे। प्रधानाध्यापक बाहर ही खड़ा था। उसने अंदर बुलाया।बैठने को खुर्ची दी तथा आने का कारण पुछा।माधव ने आने का कारण बताया।वैसे मधू बोला।
"सरजी और कितना समय लग सकता है!"
"वो क्या है कि हमारे पाठशाला में जो अनुदान मिलता है। वो अभी तक आया नही है। जब भी अनुदान प्राप्त होगा, हम सबसे पहले इनका ही काम करेंगे।यह इनको भी पता है।"
"हाँ हाँ, पता है। किंतू मेरे पिछे आये हुए कितने लोगों के काम हुए और मै कर ही रहा।उनको वेतन मिलता है और मै बेचारा वैसे के वैसे धरे बैठा हूँ।"
"उनको पहले ही दिखाया गया था।"
"लेकिन वे तो मेरे पहले कभी नही दिखे।"
"आप नही थे उस वक्त।जिस वक्त वे काम करते थे।"
मधूको मालूम पड़ा कि दाल में कुछ काला जरुर है। प्रधानाध्यापक माधव को घुमा रहा है। वह सोचने लगा क्या किया जाना चाहिए?फिर कुछ सोचकर वह बोला।
"देखो,क्या समस्या है मुझे बताओ।मै सारी तुम्हारी समस्या दूर करुँगा।तुम अनुदान की फाईल डालो।मै पास करता हूँ।"
"ठीक है।मै फाईले डालता हूँ और आपको बताता हूँ।"
"ठीक है। अभी हम चलते हैं।"
"हाँ, ठीक है।"
वे प्रधानाध्यापक के घर से निकल पड़े थे। वैसे मधू ने कहाँ।
"देखा माधव,प्रधानाध्यापक कितना तुझे उल्लू समज रहा था। कितना मुर्ख बना रहा था वो।मगर वह बातों बातों मे मुझे जान गया।"
"हाँ, तभी तो वह रास्ते पर आये जैसा लगा।"
"अब वह फाईलें भी डालेगा और मेरा काम भी करेगा ऐसे लगता है। अब मालूम नही क्या करता है।"
"अब अगर काम नही हुआ तो समज जा कि वह पाठशाला ही नही रहेगी।"
"वह फाईलें डालेगा ही डालेगा।क्योंकि उसे इसमें लाभ है।बाकी फाईलें डालेगा वह।उसमे मेरे काम के साथ साथ दुसरे लोगों का भी तो काम होगा। जिसमे वह कमा सकता है पैसा।"
"तेरा काम हो जायें बस।बाकी लोगों का क्या करना है तुझे?"
"हाँ, यह भी बात तेरी बराबर है। मुझे मेरे काम से मतलब।"
वे दोनों होटल पहूँचे।वैसे मधू बोला।
"माधव, तु अभी चिंता मत कर।अभी दो चार महिनों की देरी है।देख ले।"
"मधू आजकल तो इतनी रिश्वतखोरी बढ़ गई है कि पुछ मत।रिश्वत लेते समय उनको शर्म नही लगती।इसी वजह से हमारे जैसे लोगों का काम नही हो पाता।"
"ऐसा मत बोल माधव,मै भी तो रिश्वत लेता हूँ।"
"क्या तु भी!"
"हाँ,मै भी।परंतु क्यो लेता हूँ रिश्वत और किससे लेता हूँ रिश्वत यह नही पुछेगा?"
"तो क्यो और किससे लेते हो रिश्वत?"
"मै गरीब लोगों से पैसे नही माँगता।जो लोग भ्रष्ट है।उनसेही मै रिश्वत माँगता हूँ। तेरे प्रधानाध्यापक जैसे।"
"लेकिन उसमे हम लोगों का मरण है न।"
"क्या तुझे लगता है कि ये खाजगी पाठशाला वाले तेरे जैसे लोगों को नौकरीयाँ देते होगे।नही देते।ये उन लोगों को नौकरी पर लगाते है। जो लोग पहले से रिश्वत का पैसा इकठ्ठा करके धनवान बने है। उनको उनका पैसा कितना भी गया तो अफसोस नही होता। वे ही लोग अपने बच्चों को नौकरी पर लगाने हेतू इतना सारा धन लेते है।हम तो उन प्राप्त राशी में से तिनके जैसा पैसा माँगते है। बाकी बचा पैसा तो तेरे प्रधानाध्यापक जैसे लोग रख लेते है।"
"अं जाने दे मधू।मुझे मालुम नही था।"
"क्या खायेगा?"
"कुछ भी बता।"
मधू ने नाश्ते की ऑर्डर दी।वेटर ने नाश्ता लाया।तथा नाश्ता करने के बाद वे दोनों वहाँ से निकल पड़े।
वे घर आये थे। क्योंकि रात काफी हो गई थी। थके भी थे।अतः घर पर आते ही कुछ बातचीत न करते हुए वे सो गए।
सुबह माधव जल्दी उठा। वैसे मधू भी उठ गया था। उसने हात पाँव धोये और मधू को बोला।
"मधू अब मै गाँव निकलता हूँ।"
"ठीक है। कभी प्राब्लेम आया।तो जरूर मिलने आना।हम साथ साथ प्रधानाध्यापक को मिलने जायेंगे।"
दोनों हँस पड़े।वैसे माधव गाँव जाने को निकल पड़ा। उसमे रास्ते पर से टैक्सी पकड़ी और गाँव आ गया।
मधू के बोलने पर प्रधानाध्यापक ने संचालक के जरीयें अनुदान की फाईलें ऑफिस में डाली तथा मधू के जरीयें पास भी की।अतः अब माधव का काम हो गया और माधव मधू के प्रयास से वेतनवाला बन गया था।
वे प्रधानाध्यापक के घर से निकल पड़े थे।
माधव जैसे ही नौकरावाला हो गया। माधव के अच्छे दिन आ गये थे। अब वह रोजाना पाठशाला जाने लगा। मन लगाकर बच्चों को पढ़ाने लगा था। एक दिन उसे मधू की याद आई। जिसके जरीयें वह नौकरी पर लगा था। उसमे मिठाई का डिब्बा लिया।तथा वह अपने बिबी बच्चों के साथ मधू के घर गया। उसके हाथ में मिठाई का डिब्बा देकर बोला।
"यार मधू,तु भगवान है।तु बीच में न रहता तो आज मै नौकरी पर न लगा रहता।"
"माधव,ऐसा कहकर मुझे शर्मींदा मत कर।जो मैने किया भी होगा। वह तेरे नसीब का एक भाग था। इसलिए तु मुझे उस बारे में भगवान मत बता।मै लगे तो तुझे मेरी बिती बात बताता हूँ। सुन मेरी बिती बात।"
मधू अपनी आपबीती बताने लगा था।
"जब मै शहर में आया। तब मै बहोत छोटा ही था। मुझे यहाँपर रहना मुश्किल था। क्योंकि माँ बाप नही दिखते थे।न मेरे रिश्तेदार दिखते थे। जैसा जेल वैसाही कुछ मुझे लगता था।
सुबह शाम घोड़े जैसा खाओ और सो जाओ। ऐसी अवस्था थी मेरी।न सब्जी में तेल मिलता था न ही सब्जीयों मे माल मट्रेल.खाना खाने की इच्छा नही होती थी। चाँवल मे हरदिन अल्लीयाँ दिखती रहती तथा रोटी भी ककड़.ऐसी दर्दभरी जिंदगी थी हमारी।थोड़ी सी सब्ज़ी में ढेर सारा पानी भरा रहता था। सब्जियों की तरफ देखने की सँभावना नही होती थी।
मुझे चावल खाना अच्छा लगता था। मगर जब मै शहर आया,तब मुझे उस छात्रावास में सिर्फ शाम को ही एक कटोरी चावल मिलता था। सुबह चावल का एक भी दाना नही मिलता था।
हमारा छात्रावास तो मवालीयों का अड्डा भी था। छात्रावास का वार्डन शाम को खाने के बाद घर चला जाता था। अतः वह घर जाने के बाद मवाली लोग छात्रावास में आते रहते थे। वे तीन पत्ती का खेल खेलते रहते थे। उस वक्त पहला वार्डन बदल गया था।
पहिला वार्डन निवासी था। वह तो बच्चों को देर रात तक सोने ही नही देता था। मगर यहाँ पर आया हुआ दुसरा वार्डन खाने के बाद घर जाने से मवालियों के मवालीपन का सामना हमेंही करना पड़ता।वे लोग हमपर उतना अत्याचार करते कि उस छात्रावास में रहनाही मुश्किल हो जाता।बहोत सारे छात्रों ने छात्रावास इन्हीं मवालियों के डर से छोड़ा था।
सुबह सुबह ठंड पानी से नहाना पड़ता था।बाकी दिन की बात अलग थी। मगर जब ठंडी का मौसम आता।बड़ी परेशानी होती थी। नहाने की इच्छा नही होती थी।कोई बिमार भी क्यो न हो।उसे भी सुबह नहाना ही पड़ता।
पता है गाँव से मुझे खर्चा करने हेतू मनीआर्डर आता।परंतु फिर भी पैसे कम पड़ेंगे ऐसे महसूस होने पर मैने बुटपालिश का काम चालू किया।बुटपालिश करते समय लोग बुटपालिश तो कर लेते थे। लेकिन कोई कोई तो पैसे ही नही देते थे। कोई तो लाथ भी मार देता था।
मार खाते खाते मैने बुटपालिश तो किया।मगर पढ़ाई नही छोड़ी मैने।एक थैली में धंदे का सामान तो दुसरी थैली में पढ़ने की किताबें,जब चाहे मै कई डेरा लगाकर बैठ जाता और फुरसत मिलने पर पढ़ाई करता था। उन धंदे से आये पैसों से कुछ किताबें खरीदकर मै मेरे पढ़ाई का शौक पुरा करता था। कभी कभी तो मेरे पहचानके लोग मिलते,तब मुझे बड़ी शर्म महसूस होती।जब वे कहते।
"मधू,तु इतना पढ़ा लिखा लड़का,बुटपालिश करता है। मै शर्म के मारे नीचे मुँडी डालकर बैठता।तब कुछ देर बाद लोगों से बोलता।
"देखो,मै काम करता हूँ।कहीं भिक्षा तो नही माँगता।चोरी तो नही करता।फिर वे लोग कुछ नही कहते।मगर वे जाने के बाद मुझे ही रोना आता।सोचता,क्या नसीब बनाया है मेरा?भगवान को ही पता।ऐसा सोचते हुए भगवान से प्रार्थना करता कि हे भगवान मेरे जीवन में अच्छे दिन कब आएँगे?मेरी यही बात मेरे माँ बाप को पता न चले।अपितु मै गाँव नही आता था। अभी भी मै मेरे माँ बाप के त्याग को और मुझे हुए दर्द को भुला नही हूँ।मेरे पढ़ाई के रास्ते में मुझे बहोत तकलिफें हुई। इसलिए मै उन लडकों के लिए हमेशा दौड़ता हूँ कि जो गरीब है,जिनके माँ बाप भी गरीब है। जो माँ बाप अपने बच्चों को पढ़ा नही पाते। मगर बच्चों में पढ़ने की ख्वाईस है।"
"हाँ मधू,तेरी सोच अच्छी है। उसमे मै भी तुझे सहयोग करते रहूँगा। जैसे तुझे शहर आने के बाद तकलिफ हुई है। वैसे मुझे मेरे गाँव में।परंतु मेरे पिताजी ने मुझे पढ़ने पर विवश किया।पिताजी कहते थे।खेती करना अनपढ़ लोगों का काम है। तु पढ़ बड़ा आदमी बन।परंतु मुझे पिताजी की उस बात का अभी भी उत्तर समझ में नही आया कि किसान अनपढ़ है। क्या किसानी करना बड़ा आदमी बननेलायक नही होता?किसान बड़े नही होते?क्या किसान पढ़े लिखे नही होते? मुझे आज वह उत्तर मिल चुका है मधू कि मेरे पिताजी मुझे किसान बनाना क्यो नही चाहते थे।"
"क्यो नही चाहते थे?"
"मधू,किसान वे लोग होते है। जो मेहनत तो करते है।अपने पसीने से खेत में सोना भी उँगाते है। परंतु आज कितना भी पढ़ा लिखा किसान क्यो न हो।समाज उनको इज्जत प्रदान नही करता।समाज मे अगर किसान लड़की भी माँगने जाये,तो उसे लोग लड़की देने से कतराते हैं। लोग उन लोगों को लड़कियाँ देते है,जो कर्जे में डुबा होता है। परंतु सरकारी नौकरी करता है।जो लोग नौकरी करते हैं। वे लोग मालक तथा सरकार के गुलाम होते है। वैसे किसान किसी का गुलाम नही होता। परंतु हमारे समाज की सोच और उनका देखने का नजरियाँ,इन्सान को सोचने पर मजबूर कर देती है।
मधू इसमें समाज का दोष नही है। दोष है कालचक्र का।कालचक्र जब दिशा उलटी कर देता है।तब बड़े से बड़े किसान भी धराशायी हो जाते है। कभी सुका अकाल कभी गिला अकाल।फिर कर्ज।ब्याज पर ब्याज बढ़ता हुआ।फिर एक दिन खेती निलाम।तेरा भाग्य तो अच्छा है कि तुम्हारे पिताजी ने हाँलाकि बेटियों को पढ़ाया नही हो,मगर तुझे तो खेत खलियान बेच बेचकर पढ़ाया।वे कुछ भी करे!परंतु तुझे पढ़ाया तो जरूर।ताँकि तु अपने बहन का भी ख्याल रखे।लेकिन मुझे यह पता नही चल रहा कि आखिर बेटियों को क्यों नहीं पढ़ाया?
पता है,तु शहर जाने के बाद तेरे माँ बाप इतना रोते थे कि पुछ मत।उन्हें तेरी याद आती थी। दिनभर वे खेत में मेहनत करते और शाम को घर आते।उनका घर भी अच्छा नही था। बारिश के समय तो घर गिला होता था। परंतु घर में छत डालने के लिए वे पन्नीयाँ नही ला सकते थे। क्योंकि उनको लगता कि कब तेरे लिए जमा किए पैसों का कब काम गिरेगा। उस वक्त भीगते भीगते उन के आँसू निकल आते।फिर भी वे उस दिनों में तकलिफ सहते रहे।
एक बार की बात है। तेरे माँ की बहोत तबियत बिगड़ी थी।साथ में गौरी की भी।तो गौरी माँ के दवा के लिए गाँव में पैसे माँगने गई।किसीने पैसे नही दिये।इतने में एक बाबाजी ने पेड़ के पत्तीयों का रस बनाकर दिया तेरे माँ और गौरी को।तब तबियत अच्छी हो गई। वे बहोत तकलिफें सहते रहे।मगर तुझे गाँव न बुलाया।क्योंकि उन्हें भी लगता होगा कि यह सब तुझे पता चलने पर तु पढ़ाई न छोड़ देगा।
गौरी ज्यादा बीमार रहती थी। उसे को डॉक्टर के पास ले जाने को पैसे नही रहते थे। इसलिए गौरी का इलाज नही होता था। तुम्हारे घर का पुरा परीवार निम की पत्ती डालकर ही बड़ा हुआ।नीम के पत्तीयों में इतनी ताकद थी कि,वे पत्तीयाँ खाते ही तेरे घर के सदस्य सुधर जाते थे।
साहूँकार का तो पुछच मत।जब खेत गिरवी था,तब पुरी फसल वही लेके जाता था। इतना ही नही,तेरी माँ बहन जब साहूँकार के यहाँ काम करने जाते,तब वह साहूँकार उनके मेहनत का भी पैसा खा जाता।
उम्मीद की कोई भी किरन दिख नही रही थी। सिर्फ बेटा सुखी होना चाहिए यही उद्देश था। उन्होंने अपना दु:खदर्द नही देखा।वे बीमार होते,तो इलाज भी नही।वह दुःख दर्द सिर्फ साहूँकार ने जाना।वह भी बूढ़े वक्त।वह तुम्हारे माँ बाप के बूढ़े वक्त डॉक्टरों के हाथो तेरे माँ बाप का इलाज करता रहा। मुझे तो तेरे माँ बाप बेटा कहकर पुकारते थे। जब भी तेरे माँ बाप को तेरी याद आती।वे मेरे घर में आकर मुझे देखकर संतोष मान लेते होगे।काश!मुझमे उनको मधू दिखता होगा ऐसा प्रतीत होता था।"
"माधव, तेरी बात मै सुन रहा हूँ। आज मुझे लगता है कि मुझे सुधरना चाहिए। ये सारा पैसा,जो बेईमानी से कमाया है।यह पैसा दान करना चाहिए। मै चाहूँगा कि इसका सदुपयोग हो।इसलिए तुम ही मार्ग बताओ माधव।"
"मै क्या मार्ग बताऊँ मधू।तुही बड़ा है। तुझे बड़ा दिमाग है।तुही सोच कुछ।मुझे इसमें घसीट मत।मै कुछ नही जानता।लेकिन सोचना ही होगा तो हमारे जाने के बाद।"
"ठीक है माधव,जो तूने कहाँ वही करुँगा।"
माधव ने मिठाई का डिब्बा मधू के हाथ में दिया और वह अपने बच्चे तथा पत्नी के साथ वहाँ से निकल गया सोचते सोचते कि आज मधू ने उसका जीवन बदलाया है।
माधव की परीस्थिती धीरे धीरे सुधारने लगी थी। फिर भी वह तरक्की नही कर पा रहा था। क्योंकि वह इमानदार था।उस पाठशाला के बाकी अध्यापक उसकी इमानदारी पसंद नही करते थे। वह शराब,खर्रे का शौकीन नही था। ना ही वह व्याभीचार को बढ़ावा देता था। संचालक उसको वेतन भी कम देता था। क्योंकि उसने संचालक को कुछ भी डोनेशन नही दिया था। अपितु अभी लगता था कि अब संचालक के पास से बँक पुस्तिका हिराकर स्वयंसेवी बने।ताँकि अपना खुद का विकास हो।भिकारी जैसी अपनी अवस्था न रहे।इसी सोच के तहत माधव ने संचालक से अपनी बँक खातेपुस्तीका निकालने का निश्चय मन में किया था। क्योंकि बहोत दिनों से संचालक उसे लुट ही रहा था। अतः लुटता चला जा रहा था।


मधू को गौरी की याद सता रही थी। उसे लग रहा था कि वह कब गौरी के घर जायेगा। कब उसे मिलेगा।गौरी आखिर कैसी होगी?कैसे दिखती होगी?
मधू नेने गौरी को मिलने जाने का निश्चय किया था। वैसे एक दिन छुटीयाँ देखकर वह गौरी के घर निकल गया। गौरी के घर जाने के लिए बड़े बड़े रास्ते काँटकर जाना पडता था। बीच में नाले गिरते पार करते हुए जाना पड़ता था। रास्ता भी खास अच्छा नही था। रास्ते के बीचोबीच इतने खड्डे थे कि गाडीयों के पट्टे तुटने का सँभव था। मात्र मन में गौरी को मिलने के लड्डू फुट रहे थे।
गौरी घर में ही थी। उनने देखा कि एक चार चाकी गाड़ी उसके घर के सामने आकर रुक गई है। उस गाड़ी से एक नौजवान उतरा है। वह नौजवान आँखों मे काला चष्मा पहना हुआ है। तथा वह कोई साहाब लगता है। आगे में किसीको पुछताछ कर रहा है। वह नौजवान उँचा पुरा होने के बावजूद पैर के जुते में पालिश भी चमकता नजर आ रहा है। पयजामा काले रंग का तथा कुड़ता सफेद रंग का पहना हुआ है।
गौरी का घर आया।परंतु गौरी को देखा नही था। अपितु वह घर के अंदर नही जा पाया। वह उसके घर के सामने खड़ा था। वहाँ पर एक अदेड़ उमर के बाबाजी खड़े थे। उनसे वह युवक बात करने लगा।
"कौन हो आप? कौन चाहिए?"
"अजी यहाँ गौरी रहती है क्या?मुझे गौरी चाहिए।"
"कौन हो आप?"
"मै मधू,उनका भाई हूँ।"
"लेकिन उसे तो भाई नही है। उसने ही कहाँ था।"
"बाबाजी मै भाई हूँ उसका।"
"देखो युवक,जवानी में एक लड़की को विधवा होना चाहिए क्या?उसके बाद साँस ने भी उसे बड़ी तकलीफ दी। उसकी साँस उससे बड़ा काम करवाकर लेतू थी। मारती भी थी।मगर हिम्मत नही हारी उस बेचारी ने।दिनभर रोेती रहती थी। अपने नसीब को कोसते रहती है। अब बेटा,जिस घर में उस लड़की के कोई रिश्तेदार न दिखे। उसका नसीब कैसा होगा? ये सोचनेवाली बात है क्या नही?तु कौनसा भाई है बेटा?"
"मै सगा भाई हूँ।मै दूर पढ़ता था।अतः मुझे तो गौरी के शादी के भी बारे मे कुछ पता नही है।"
"अभी किसने बताया?"
"मेरी छोटी बहन ने।"
"बेटा,अभी तो नही है उतनी तकलिफ।"
"क्यो? क्यो नही है अभी तकलिफ?"
"अभी तो उसकी लड़की जवान हो गयी है।"
"जाने दो बाबाजी।आप बताते बताते दिन निकल जायेगा। अब बताओ कहाँ है गौरी का घर?"
बाबाजी ने उँगली दिखाई।बोले।
"बावाजी ने कुछ बोला ये कहना नही बेटा उस गौरी को।"
"नही बाबाजी।"
बाबाजी के कहेनुसार मधू गौरी के घर गया।
गौरी का घर बोलो तो बड़ा महाल ही था। घर के सामने बडा़ लकड़ी का दरवाजा था। मधू ने उसके घर के सामने ही अपनी गाड़ी लगाई और वह अंदर चला गया। उस दरवाजे के अंदर और तीन बड़े बड़े बंगले थे। मानों लगता था कि इस बंगलो के मालिक कोई बड़ा राजा ही होगा।उस तिनों बंगलो में से एक बंगले के दरवाजे पर मधू जा पहूँचा। पुछा।
"अजी कोई है?"
उतने में एक औरत बाहर आई। बोली।
"कौन चाहिए?"
"गौरी चाहिए।"
"कौन हो आप?"
"मै मधू,गौरी मेरी बहन है।उनसे मिलने आया हूँ। क्या गौरी यहाँ पर ही रहती है?"
"वो वहाँ पर पुछ लो।"
वैसे मधू दुसरे बंगले के तरफ गया और पुछने लगा।
"कोई है?"
वैसे एक बूढ़ी औरत बाहर आई। बोली।
"कौन चाहिए बेटा?"
"मुझे गौरी चाहिए। क्या यहाँपर गौरी रहती है?"
"लेकिन आप कौन हो?गौरी से आपका कौनसा काम?''
"मै भाई हूँ उसका।"
"तुम भाई हो।वो शहर में पढ़ने वाले।लेकिन इतने दिन कहाँ गए थे?"
"मुझे गौरी का पता ही नही चला।"
"अब किसने बताया?"
"नंदीनी।मेरी छोटी बहन ने बताया।"
"नंदीनी का पता किसने दिया?"
"मेरे माँ ने दिया था बरसो पहले।पिछले महिने मै नंदीनी के घर गया था। तब नंदीनी ने दिया था पत्ता।"
"आ बेटा अंदर।" वह बुढ़ीया बोली।उसने गौरी को आवाज लगाई। तथा उसकी आवाज सुनते ही अंदर से आवाज आई।
"क्यो साँसूमाँ,क्या हुआ?"
"गौरी,बाहर आ।तेरा भाई आया है।कहता है उसका नाम मधू है और वह गौरी को मिलने आया है।"
"कौनसा भाई माँ?"
"तु बाहर तो आकर देख।"
"ठीक है, आती हूँ।"
वैसे गौरी बाहर आई।उसके सर पर घुँघट अभी भी था।
"मधू तु!काफी बदल गया है।"
"हाँ और तुम भी काफी बदल गई हो दिदी।"
उसने जैसे ही मधू को देखा।उसने हाथ पाँव धोने को पानी दिया।तथा उसे घर के अंदर लेकर गई।
"हाँ तो बोल मधू,तु इतने दिन कहाँ था?क्या तुझे नौकरी लगी।"
"हाँ दिदी,मै ऑफिसर बन गया हूँ।"
"मधू,मै जबसे शादी करके यहाँ आई।तबसे गाँव ही नही गई थी।परंतु जब पिताजी गुज़र गये,तब गाँव जाकर आई हूँ।"
"बहन एक बात बता।जब तेरी शादी हुई।तब मुझे पिताजी ने क्यो नही बुलाया?"
गौरी कुछ सोचती रही।फिर बोली।
"वह बात मुझे पता नही।परंतु इतना पता है कि अपने पिताजी के पास पैसा न होने से वह पैसा तेरे जीजा ने दिये थे। वह राज छुपाने के लिए तुझे शादी में नही बुलाया होगा। अब उतना तो पूरा पता नही मुझे?"
"और मेरा दुसरा सवाल कि पिताजी ने जैसे मुझे पढ़ाया।वैसे तुम्हें क्यो नही पढ़ाया?"
"मधू,ऐसा नही बोलना।तु खुद का लड़का ही ऐसा बोलेगा,तो बाकी लोग क्या क्या बोलेंगे,पता है।"
"ठीक है।जाने दे,मगर दिदी,यही बात मेरे दिल में काँटे की तरह चुभती है।"
"मधू,मेरे घर वाले जमींदार थे। वे पढ़े नही थे।लगता था कि तु हमे मद्द करेगा।परंतु तु ऐसा सवाल कर रहा है। जिसका उत्तर मेरे बस में नही।
पता है तुझे,अब तु कहता हू है तो बताती हूँ। पिताजी के उपर खेत न पकने से कुछ कर्जा हुआ।इससे पिताजी ने हमे नही पढ़ाया। परंतु साहूँकार के चंगुल में जैसे पिताजी फसे। वैसे बाकी लोग नही फसने चाहिए,यह पिताजी की इच्छा थी। अतः तुझे पढ़ाया।
पता है गाँव में साहूँकार के मवाली लोग कभी भी किसी भी लड़की को छेड़ते थे। अतः पिताजी ने उनके लड़की की इज्जत बनी रहे इस हेतु से हमारी शादी बचपन में ही कर दी।उस साहूँकार का इतना रुतबा था कि पुलिसवाले भी उसकी शिकायत नही लेते थे।"
"इसका पढ़ाने से क्या मतलब?"
"मधू चौथी कक्षा तक ठीक ही था पढ़ना।परंतु आगे में कितने पैसे लगते और हम लड़कियाँ तो ठहरी पराया धन।पिताजी हमे अगर पढ़ाते तो तेरे पढ़ाई का क्या होता।तु पढ़ पाता क्या इतना।क्योंकि पिताजी के पास उतना पैसा नही था।"
"हाँ दिदी,तेरी भी बात बराबर है।"
"इज्जत बची तो लाखों पाये।नही तो हमारा समाज हमें खौलते तेल में धकेल देगा।"
"हाँ,तुम्हारी बात ठीक है। लेकिन समाज ये भी कहेगा कि उनके पिताजी को समजता नही था क्या?उन्होने सोच विचार न करते हुए बच्चीयों की जल्द शादी तो की।मगर उनको पढ़ाया नही।क्योंकी वे महिला थी। समाज जहाँ प्रभू रामचंद्र से कहकर सीता माता को वनवास भेजता है,उन्हें उपरोक्त बात कहने में क्या है?"
"अं,जाने दे मधू वह बात।हम लोगों की बातों का बवंड़र करेंगे। तो जी ही नही सकेंगे।"
"मुझे तो अफसोस होता है दिदी कि मेरे लिए तुम्हारी कुर्बानी चढ़ी।"
"नही रे पगले।एक दिन की बात बताती हूँ। हम तिनों बहना खिड़की से जब झाँक रहे थे। पिताजी व माताजी का झगड़ा चल रहा था। माँ बोल रही थी। बच्चीयों को नही पढायेंगे और पिताजी बोल रहे थे कि बच्चीयों को पढायेंगे।उतने में हमने अंदर जाने का फैसला किया।हम अंदर गये।तब संजू बोली।
"गौरी,तुही बोल और मै बोल पड़ी।
"पिताजी क्या बात है? हम डर गये है आपके झगड़ों से।"
पिताजी बोले।
"इसमे डरने की कौनसी बात है? ये कहती है बेटियों को नही पढायेंगे और मै कहता हूँ कि पढायेंगे।अब तुम ही बताओ कि तुम मुझे नही बोलोगे कि बाप ने पढ़ाया नही।"
इतने में संजू बोली।
"पिताजी,आप हमारी चिन्ता छोड़ दो।हम नही पढ़ना चाहते।"
पिताजी बोले।
"क्यो?"
तब संजू बोली।
"हम गुंडों से डरते है।कही हमारी उन्होने हमारी छेड़छाड़ की तो।हम ठहरी महिला जात।इससे अच्छा हम सभी मिलकर मधू को ही पढायेंगे।अपितु हम आपके कामधंदो में मदत करेंगे। इससे हमारी स्थिती भी अच्छी हो जाएगी और बचा पैसा मधू को हो जाएगा। पढ़ लिखकर बड़ा होने के बाद मधू हमारे भी काम आएगा। आखिर हमारे पास उतना पैसा नही है कि आप हम चारों को पढ़ा सके। इस समय हमारा पेट भरना मुश्किल काम है। सरकार भले ही पैसा नही लेगा पढ़ाई का।परंतु पाठशाला वाले तो लेते ही है पैसे।"
"बेटा,हमें आनेवाला समाज क्या कहेगा? लड़की लड़के में भेद किया करनसिंह ने।तब मै क्या जबाब दूँगा?"
"कह देना कि बेटियाँ पढ़ना ही नही चाहती थी। आखिर हम भी तो घर के सदस्य है। हमारी भी तो निर्णय लेने की जिम्मेदारी है। मधू लड़के की जात है और हम लडकियों की।पिताजी हम तो पराया धन है। पढ़ने के बाद भी तुम्हारे काम नही आएँगे। अपने ससुराल वालो के काम आएँगे।हम आपका काम करना भी चाहते हुए हमारे. क्रमशः