कविता –संग्रह – “स्वप्न एक नाजुकसे ...!
अरुण वि देशपांडे
अनुक्रमणिका
मनोगत
मित्र हो- इंटरनेट आणि फेसबुक या दोन्ही मुळे मोठ्या संख्येने मला इथे नवे-नवे वाचक –मित्र मिळाले , त्यांच्या बरोबर संवाद-भेटी नित्यानेमाने होतात ,थोडक्यात माझ्या सारख्या लेखक-कवी साठी एक अत्यंत उपयुक्त असे व्यासपीठ उपलब्ध झाले.
माझ्या काही कविता पहिल्यांद्या इथे आपल्यासाठी घेऊन आलो आहे. या संग्रहाचे शीर्षक आहे.”स्वप्न एक नाजुकसे “ यातील रचना आपल्याला नक्कीच मनापासून भावतील.
मित्र हो –तुमचे अभिप्राय –प्रतिक्रिया जरूर कळवणे .या पुढे इथे आपण नियमितपणे भेटणार आहोत.
मातृभारती –या माध्यमातून रसिक-वाचकांसाठी माझे साहित्य सादर करण्याची ही संधी दिल्या बद्दल मी टीम –मातृभारतीचा आभारी आहे.
स्नेहांकित,
अरुण वि.देशपांडे –पुणे.
मो- ९८५०१७७३४२
Email –
१. हे किती खास आहे …!
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पुढे पुढे करण्याचा सोस आहे
काही न करता सारे जमावे
नेहमीच असा जोश आहे
हे किती खास आहे ।।
खुशमस्करे घोंगावती जिथे
मिसळूनी बेमालूम त्यात जावे
न जाणवावे कुणा कधी
हे किती खास आहे ।।
तत्वाशी बांधिलकी असावी "?
खुळेपणाचे लक्षण की आहे
काही न करता सारे ओंरपावे
हे किती खास आहे ।।
मेहनत , कष्ट ,पराकाष्ठा
करण्यास कुणा हो वेळ आहे
जमवता येतो मेळ सारा
हे किती खास आहे ।।
कसे असावे , कसे करावे ?
हा प्रश्न ज्याचा त्याचा आहे
पुसण्यास कुणी नसे रिकामा
हे किती खास आहे ।।
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२. ते पुन्हा आठवले ...!.
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कोरड्या ठप्प नदीच्या काठी बसता
खेळकर रूप तिचे ते आठवले ||
हीच नदी हाच तिचा तो किनारा
पाण्यातले पाय , स्पर्श ते आठवले ||
वाळूत नावांची ती नक्षीदार कोरणी
तुझे स्मित चांदणे तेही आठवले ||
कविता मन चिंब चिंब करणार्या
भारलेले शब्द ते पुन्हा आठवले ||
जादूचे क्षणते - दिवसही तसेच ते
मोरपीस मन तळातले ,ते आठवले ||
आयुष्य झाले आजचे कोरडे जगणे
अजुनी आठवणी ओल्या ,हे आठवले ||
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३. बिनदिक्कतपणे
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बिनदिक्कतपणे करावे खूप खूप असे
वाटणे मनाच्या बाहेर ते येतच नाही
याला काय वाटेल-त्यांना काय वाटेल "
नुसता "विचार करण्याची सवय जात नाही
यातच आयुष्य सरत चाललय
बिघडून गेलीय यातच जगण्यातली लय .
किती विचार कराव लागतो ,कुणा कुणाचा
काही करण्या अगोदर
भित्या पाठी भूत ..
असच प्रकार असतो
काही केल्या मानगुटीवरून नाहे उतरत हे भूत ..
मन अधून मधून झटका आल्या सारखं करतं
अवसानघातकी मन
उमेद ओसरून गेली की मग नेहमी सारखच
निस्तेज-निर्विकार .
फार काही जगावेगळ करयचं असे ही नसते
बेदरकारपणे -बेमुरव्व्तपणे -बेधुंदपणे -बेभानपणे
बेलामुमपणे ' थोडक्यात कैफात " वावरावे ..
बिनदिक्कतपणा मनातच नाही हेच खरे
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४. वाईट नसते वाटले ।
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फाटका म्हणून कुणी हसले
इतके वाईट नसते वाटले
वाईट याचे जास्त वाटले की
स्वार्थामुळे नाते पुरते फाटले …!
रंग वरवरचे पाहून भुललो
ओळखण्यातही कमी पडलो
गमावून बसलो नि लक्षात आले
मायेचे झरे तेही आता आटले…!
वाहती वारे भोवताली तैसे
भिरभिरणे कधी नाही जमले
शब्द माझेच जे बोलून बसलो
फिरवणे शब्दांना नाही जमले …!
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५. स्वप्न एक नाजुकसे .
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गुंतणे मनाचे असे
स्वप्न एक नाजुकसे
भेटे अवचित कुणी
मनी भरे केव्हा कसे ?.........||
सांगता येत नाही हो
का आवडे कुणी कसे ?
गुण भावे- रूप भावे
काही समजत नसे ..!.........||
जगणे एकट्याचे हो
जगणे ! म्हणवे कसे ?
सोबतीस येता कुणी
जगणे सानंद असे .............||
फलश्रुती प्रेमाची ही
कोड्यात का पडतसे
बघ प्रेमात पडून
आपोआप कळतसे ............||-
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६. कधीच जमले नाही ! -
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वाहती वारे भोवताली तैसे
भिरभिरणे मज जमले नाही
शब्द माझेच जे बोलून बसलो
फिरवणे ही तेच जमले नाही …!
चतूर-चाणाक्षांच्या बागेत त्या
स्वार्थाचे वेल न लावता आले
भरभरून मौसम आले गेले
सावडणे फुले मज जमले नाही
असे करणे का जमले नाही ?
प्रश्न मीच मला विचारले नाही
जे कधी मनास पटलेच नाही
ते करणे कधीच जमले नाही …!
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७. एक कविता …!
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काय सांगायचे कसे सांगायचे ?
घुटमळते मन सांगण्यासाठी
शोधात ते मग निघते शब्दांच्या
मदत करती जे कवितेसाठी …!
कविता जणू एक सखी जिवलग
सारखी मनात ती डोकावते
अस्वथ मनास समजावते छान
बळ देई कविता जगण्यासाठी …!
कविता जाणीव देते एक नवी
माणूस असुदे मनात नेहमी
कर विचार या माणसांचा तु रे
तुझी कविता असावी त्याच्यासाठी …!
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८. शीळ ओठी ती …!
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शीळ ओठी ती
मोठ्या उत्साहाची
मागे ना पाउल आता
जे पुढे टाकलेले …!
दिवस बहरलेले
मन बहकलेले
नजरेस पडते
जग खुललेले …!
असती भोवताली
निराशेचे थांबे
इथे न थांबे
मन फुललेले …!------------------------------------------------------
९. भाव मनीचे …!
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जुळवाजुळवी ती शब्दांची
सोपी असते ?, मुळीच नाही
असेल समजदार समोरचा
अशी खात्री देता येत नाही…!
सांगणे तसे सारेच कुणा
कधी रडगाणे ना ठरावे
काय सांगावे ,नि काय नाही
हे ज्याचे त्यानेच ठरवावे …!
बोजड अपेक्षांचे ओझे ते
आत साठवणे बिनकामी
समोरच्या मनात प्रतिमा
नसावी कधी ती कुचकामी …!
भाव भावना व्यक्त करणे
ओढ असते हरेक मनाची
आठवणी असतात याच्या
गुंतवणूक हो हीच मनाची …!
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१०. वाटचाल ही..!
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कितीक योजने चालुन झाले अंतर सारे
परी आणिक आहे करणे वाटचाल पुढची
उगवती हर एक नवी पहाट ही रोजची
भरते उमेद नवविश्वासाच्या वाटचालीची
थकल्या भागल्या जीवा आधार देण्यास
शितल चांदणे देती तारे सारे आकाशाची
बदलो कितीदाही दुनिया नजरे समोरची
ईच्छा मनात कणखर वाट पूर्ण करण्याची!
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११. इथे...!
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मन थिजले भावना गोठल्या
आपलेपणाचा बर्फ आत इथे
वितळणार आता काहीच नाही
नजरेत फक्त गारठा इथे ...!
मित्र सोबती ना राहिले इथे
सावल्या त्यांच्या त्या बेभरोसी
निसरडे झाले ते हमरस्ते
सरळ सध्या वाट्या लुप्त इथे ...!
बातमी - पत्र वर्तमानाचे आता
भयकारी भाविष्य चाहूल देते
स्थिरता ना उरली जगण्यात
अंदाज ना काय घडेल उद्या इथे ?
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१२. अटळ हे जगणे…!
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होते जरी घालमेल रोजच या जीवाची
अटळ जगणे आम्हासी जगावे लागत आहे ।।
दुसऱ्या दुनियेत मात्र सदा आलबेल आहे
नाही नाही त्या गोष्टींना बघावे लागत आहे ।।
स्व: वर लुब्ध झालेल्या लब्ध -प्रतिष्ठितांचे
जगणे बेगडी तरी ते पहावे लागत आहे . ।।
चाड नाही उरली जगात मूल्यवान नीतींची
संस्कार फुले पायदळी पहावी लागत आहे. ।।
तुंबड्या भरण्याची तृष्णा भागत नाही तरी
दिसेल ते लुटणाऱ्याना पहावे लागत आहे . ।।
लढण्याची जिद्द विरोधात जे बाळगुनी आहे
सोबत्या अभावी पीछेहाट पहावी लागत आहे. ।।
माणूस हा जणू एक सरडा ,नित्य रंग बदली
चक्रावणारे रूप निमूट पाहावे लागत आहे. ।।
आहे बिकट जरी सारे ,मन आशावादी आहे
अटळ जगणे सारे जगावे लागत आहे . ।।
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१३. क्षण अनमोल हे....!
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वेचूनी घ्यावे भोवतीचे
क्षण अनमोल साजरे
तो देतो मुक्त हस्ते सारे
साठवूनी घ्यावे हे सारे..!
नजरेस पडते जे काही
मना ते जाणवून द्यावे
दिसेते जे नजरेस ते
क्षण साठवावे हो सारे ...!
आनंदात जगणे सदा
अमाप समाधान देते
असोजगणे समावेशक
क्षण हे अनमोल सारे...!
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१४. मन हे...!
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धुक्यात हरवलेल्या वाटा
शोधिते शोधिते मन वेडे
क्षितिजा पर्यंत वाटा असती
धावते तिथ पर्यंत वेडे .....!
निळ्याशार निरभ्र अंबरी
मनपाखरू फिरे भिरभिरी
सायंकाळी संधिप्रकाशात
फिरे माघारी मग मन वेडे ...!
पहाटेच्या कोवळ्या उन्हात
होई पुन्हा रोज ताजेतवाने
विसरुनी कालची निराशा
मन भिडे जीवनास नव्याने ....!
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